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________________ तृष्णा का जाल कथा प्रवाह तृष्णा को जीतकर कपिल मुनि बन गये। तब सामने उपस्थित राजा एवं सभी सभासदों ने उनको नमस्कार कर कहा-हे तृष्णाजयी त्यागमूर्ति ! आपने कैसे अपनी इच्छाओं को जीता, हमें भी इसका मार्ग बताइए। कपिल मुनि ने अपनी कहानी सुनाकर कहा-विज्ञजनो ! मैं कौशाम्बी के राजपुरोहित का अनपढ़ पुत्र था। विद्याध्ययन के लिए श्रावस्ती के महापण्डित इन्द्रदत्त के पास आया। यहाँ पर श्रेष्ठी शालिभद्र के आवास पर मेरी भोजन और शयन की व्यवस्था थी। यहीं पर एक दास-कन्या के स्नेह में बँध गया। उसकी मनोकामना पूर्ति के 0 लिए आधी रात में दो मासा सोना लेने धनश्रेष्ठी के घर जाने को निकला। पहरेदारों ने चोर समझकर पकड़ लिया और महाराज ने मुझे निर्दोष मानकर मन इच्छित माँगने को कहा। मेरी तृष्णा बढ़ने लगी। दो मासा सोने से एक तोला, फिर हजार, लाख, कोटि स्वर्ण-मुद्रा र माँगने को मन ललचाया। तृष्णा बढ़ती गयी। राम-सिंहासन माँगने की ललक उठी। तभी मेरे अन्तःचक्षु खुले। कपिल ! तू चाहे जितना माँग ले, तेरी तृष्णा आगे से आगे बढ़ती जायेगी। जलती अग्नि में जितना घी डालो अग्नि शान्त नहीं होगी, अधिक प्रज्वलित होगी। ईंधन डालना बन्द करो, तभी अग्नि शान्त होगी....बस, मैंने इच्छा पर अंकुश लगाया, तृष्णा शान्त हो गई। मन की आतुरता मिट गई। अब किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं रही। मेरा मन शान्त है, प्रसन्न है। न भय है, न चिन्ता, न उद्वेग। जो शान्ति का मार्ग मुझे मिला है, आप भी उस पर चल सकते हैं। 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002829
Book TitleTrushna ka Jal Diwakar Chitrakatha 030
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadankunvar, Shreechand Surana
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Story
File Size22 MB
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