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तृष्णा का जाल कपिल उठा और चलता-चलता सीधा कुटिया के सामने पहुंचा। घर के बाहर गोबर-मिट्टी से लिपे चबूतरे पर स्वयं पण्डित इन्द्रदत्त ही बैठे थे। कपिल ने साष्टांग प्रणाम किया
कौन हो. तुम? कहाँ से आये हो?
मैं महापण्डित काश्यप का पुत्र कपिल आपको प्रणाम
करता हूँ।
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ओह ! देवेच्छा बलीयसी !
अच्छा ! अच्छा! तुम कौशाम्बी से आये हो। कैसे हैं मेरे प्रिय मित्र काश्यप?
बैठो, कैसे हैं बाकी सब लोग? तुम्हारे आने का
क्या प्रायोजन है?
वे तो अब इस लोक में नहीं
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रहे।
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