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भगवान ऋषभदेव
एक बार भगवान ऋषभदेव अयोध्या में पधारे। भरत धर्म सभा में एक स्वर्णकार भी बैठा भगवान की धर्म आदि हजारों लोग उनका उपदेश सुनने गये। देशना सुन रहा था। यह सुनकर वह भगवान ऋषभदेव से पूछता है।
बन्धुओ, धन आदि की ममता त्यागकर मन को हल्का बनाओ। जिस प्रकार हल्की वस्तुएँ ऊपर उठ जाती है भारी नीचे बैठ जाती हैं उसी प्रकार जिसके जीवन में धन आदि परिग्रह का अधिक भार होगा वह नीची गति में जायेगा और अल्प परिग्रही ऊँची गति में।
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नहीं ऐसा नहीं है: भरत तो जल में
कमल की तरह अनासक्त भाव
से अपना कर्त्तव्य निभा रहा है; वह महा परिग्रही नहीं है।
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* परिग्रह- धन संपत्ति का लोभ Jain Education International
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चिक्रवर्ती सम्राट और अल्प परिग्रही? भगवान के घर में भी
पक्षपात..?
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प्रभु ! सम्राट भरत महान् परिग्रही हैं और मेरे पास बहुत कम परिग्रह है। तो क्या मैं ऊँची गति में जाऊँगा और भरत नीची गति में ?
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भरत ने जब स्वर्णकार को दुविधा की स्थिति में देखा तो
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इसने भगवान के कथन को ठीक से समझा नहीं है। इसे समझाना चाहिये।
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