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________________ क्षमादान कुब्जा अपनी प्रशंसा सुनकर आँखें नीची करके मुस्कराने लगी। कुब्जा, मैं तेरी सेवा भावना से बहुते प्रसन्न हुआ हूँ। मेरे पास कुछ दिव्य वस्तुएँ हैं तू जो चाहे मांग लें। सेठ जी! नारी के लिये सबसे बड़ा दुःख उसकी कुरूपता है। मेरा कुबड़ा रूप और काला रंग ही मेरा दुःख है। मेटी एक ही चाह है सुन्दरता AGAN 1900000 कुब्जा की बात सुनकर धर्मसार ने अपनी पेटी अगले दिन श्रेष्ठी धर्मसार ने राजा से विदा ली और में से एक दिव्य गुटिका निकालकर उसे दी। वापस अपने मगध देश को लौट गया। (पूर्णिमा की रात को इस गुटिका का सेवन करने से तुम्हारा रूप लावण्य अप्सरा के समान हो जायेगा। 53 आठ दिन पश्चात् पूर्णिमा की रात्रि आई। कुब्मा ने स्नान आदि करके गुटिका का सेवन करने से पहले भगवान का स्मरण किया। हे भगवान! इस दिव्य औषधि के प्रभाव से मैं संसार की अद्वितीय सुन्दरी बन जाऊँ....। श्रेष्ठी के कहे अनुसार आज मुझे गुटिका का सेवन करना चाहिए। KLOOD Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002801
Book TitleKshamadan Diwakar Chitrakatha 001
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Children Story, Literature, N000, & N040
File Size19 MB
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