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________________ श्रीक र म चंद मंत्रि-वंश प्रबन्ध । भीमराज मंत्रीराज आगलि खरइ खांडइ खेलि, संग्रामकरि परलोकि पहुतउ जयत सीरी गेलि। रण झूझता किम सूर पाछा पग दिखावइ आज, वरपुत्र माता जनकनइ किम आणावइ ते लाज । विक्रम० ॥ १२० यतः-संपदि यस्य न हों विपदि विषादो रणे च धीरत्वम् । तं भुवनत्रयतिलकं जनयति जननी सुतं विरलम् ॥२ अभिमुखागतमार्गणधोरणीध्वनितपल्लविताम्बरगहरे। वितरणे च रणे च समुद्यते भवति कोऽपि दृढो विरलः पुमान् ॥ ३ जयतसी रणमहि रह्यउ जांणी लेइ जंगल देस, मालदेव निज पुरि जाम पहुतउ फणधरी जिम सेस । साहिसेन सजि नगराज आव्यउ भंजीयउ रिपुवास, रणमूरि हरि अरि सूर तमभर अधिकउ कीयउ प्रकास ॥विक्रम०॥१२१ निज भूमि वाली जयतहथउ हिव आवीयउ निजठामि, सेरसाहि करि कल्याणनइ टीलउ दिवारइ ताम । मंत्रीस साहिनइ साथि आव्यउ मूकि वीकानेरि, कल्याणनृपनइ हिव खुसी साहि भेजइ मंत्रिनइ फेरि॥ विक्रम०॥ १२२ आवतां श्रीअजमेरू पहुता सरगि अणसण लेउ, इहलोक नइ परलोकना बुध करइ कारिज बेउ। कल्याणमल हिव राज पालइ तेजि करिय महल्ल, नगराजना सुत त्रिण्ह हुआ चालइ पूरव चल्ल ॥ विक्रम०॥ १२३ कलियुगइ कृतयुग प्रमुखस्युं अवतर्या ए धरि देह, विधि विष्णु गोरीपति किस्युं अथवा हूआ धरि नेह । मंत्रीस देवा सगुण राणा सुमति श्रीसंग्राम, मंत्रीयां माहे महत जसु जागइ सुजस संग्राम ॥ विक्रम० ॥ १२४ कल्याणराजइ मानीयउ जिम सुरगुरु सुरराजि, देवा तनूरुह सार मेहायल जिसउ द्विजराज । वर अभय माना मंत्रि राणापुत्र अमृत सुजान, संग्रामनइ घरि घरणि त्रिण्हे कलपलता जिम दानि । विक्रम०॥ १२५ इश्वर घरइ जया विजया शिवा सोहइ जेम, सुरताणदे सिरताज समरइ जिन भणी धरि प्रेम । गुरू भगत भगतादेवि भाग सोभाग भर जगिजास, सुरूपदेवि मंत्रिसंग्राममंदिरि तिम महिमानउ निवास॥विक्रम०॥१२६ ॥ ढाल ६, राग-सामेरी ।। संग्राम मंत्री। मतिसागर मुहतउ जाणी, सेरसाहइ सुगण वखाणी । संग्राम मंत्रीसर थाप्यउ, जगमइ जस जेहनउ व्याप्यउ ॥ १२७ आबूगिरि श्रीगिरिनारइ, करि जात्रा जिणिंद जुहारइ । विमलागिरि गुरूअइ भावइ, सेना सजि जात्रनु आवइ ।। १२८ मुगताचलि कीधउ मुगतउ, कंचणदत दीधउ जुगतउ । कोटीधज सांहां सांखइ, इंद्रमाल पिहरि जस राखइ ॥ १२९ आया जिनि जिनि पुरि गामइ, लाहाण कीधी संग्रामइ । सनमुख ठाकुर सवि आइ, सनमानइ देइ वधाइ॥ १३० वलता चित्रकूट पधारइ, राणउजी महत वधारइ । लेइ पूरउ अह्मनउ कोड, अस ग्राम गजानी जोड ।। १३१ सामि धरमी मंत्रि न टूकउ, लेवा न लोभि न चूकउ । बोलायउ नृप कल्याणइ, सेना सजि आयउ त्राणइ ॥ १३२ विचि मालदेवस्यु वात, करि देखि रमइ छल घात । मध्य देसमांहि नवि पइठउ, निज मंडलि आइ बइठउ ॥ १३३ करि तोरण वंदर माल, आव्या सनमुख भूपाल । पहुतां कीधउ पइसारउ, वीकमपुर हरष्यउ सार ॥ अनुक्रमि रिपुना बल पाली, सवि राजधुरा करि झाली । जिनचंद्र क्रिया-उद्धारइ, उच्छव करइ द्रव्य अपारइ ॥ १३५ बुधनइ धन देइ उदार, शिष्यांनइ प्रकरण पार । पहुचावइ ज्ञाननउ दान, सगलामांहे परधान ॥ सुखहेतु विमलगिरि शिखरइ, विधि-चैत्य करावइ सुपरइ । दुरभिखि दे सत्रुकार, कीधउ सगलइ उपगार ॥ १३७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002797
Book TitleMantri Karmachand Vanshavali Prabandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1980
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & History
File Size9 MB
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