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________________ १२९४ सुहृदामतिशङ्का च IV. 87.23c सुहृदामर्थकृच्छ्रेषु VI. I7.33a सुहृदा वा परं मम VI. 49.28d सुहृदां चैव राघव IV. 8.4b , धर्मचक्षुषाम् II. III.22d " नन्दनं दीघम् VI. 21.6c , नात्र संशयः VII. 23.13d , पाल स्य च II. 23.38d , राघवाशया VI. 91.26b , हितकामानाम् VI. III.76a मुहृदो बान्धवांश्च नः II. I06.17b ,, मे भवन्तश्च VII. 39.23c सुहृदो वा भवद्विधाः VI. 18.15d ,, हितकाङ्गिण: VI. I04.8b सुहृद्गणसमावृतः VI. II2.16b सुहृद्दर्शनकाङ्गिणः V. 57.21d सुहृद्दर्शनलालस: V. 57.16d सुहृद्धर्मेण राजनि II. 45.2b सुहृद्भिरनिवर्तिनम् VI. 92.44d सुहृद्भिर्बान्धवैश्चैव VI. I20.15d सुहृद्भिर्हितबुद्धिभिः VI. 92.42b सुहृद्भिस्तत्र रामोऽपि II. 5.13a सुहृद्भिः पर्युपासीनः II. 69.6c ,, सह निश्चिताम् II. 12.63d ,, साकमात्मवान् II. 9.35b सुहृद्भयश्च न्यवेदयत् VI. I28.58d सुहृद्वितीयो विक्रान्तः IV. 40.15a सुहृद्विशिष्टाः सहलक्ष्मणास्तदा VI. I08.33b सुहृल्लोभेन चेतसा VI. II5.Igd सूकराः शुनकैः सह VI. 35.30b सूक्ष्मक्षौमाम्बरधरम् VII. I08.12c सूक्ष्मबुद्धिर्विचारय VI. 2.20d सूक्ष्ममप्यरिसूदन II. IOI.I7b सूक्ष्ममप्य हितं कर्तुम् VI. 18.22c सूक्ष्मवस्त्रमवक्षिप्य II. 37.70 सूक्ष्मः परमविज्ञेयः IV. 18.15a सूक्ष्माः सुरभिगन्धिनः II. 74.17d सूचकश्च कदर्यश्च IV. 17.37c सूचयन्ति परं तेजः IV. II.8Ic सूचिता वरवर्णिनी III. 60.28b सूच्छ्रितध्वजमालिनी II. 43.10d सूत इत्येव चाभाष्य II. 49.13a सूत न क्वचिदेवं ते VII. 50.15c सूतपुत्रं विशारदम् II. 14.33b सूतपुत्रः प्रतापवान् II. 84.IIb , प्रदक्षिणः II. 16.5b सूतपुत्रो महाबल: II. 14.43b सूत मद्वचनात्तस्य II. 58.15a , मद्वचनात्त्वया II. 58.16D सूतमभ्यद्रवन्नराः II. 57.9d सूतमभ्यन्तरं पितुः II. 16.7b सूतमश्वपतेः क्लान्तम् II. 7I.34C सूतमागधबन्दिनाम् I. I8.20b , II. 6.6b सूतमागधसंबाधाम् I. 5.IIa सूतमामश्रयामास II. 4.3c सूतमुख्यैरधिष्ठितान् II. 93.16b सूत यद्यस्ति ते किंचित् II. 59.21a , याहि शनैः शनैः II. 40.22b , रत्नुसुसंपूर्णा II. 36.2a , रामस्य कीर्तये II. 58.12b सूतलक्ष्मणयोः पथि VII. 51.29b सूतवाक्यं निशाम्य च I. II.I3d सूतश्चित्ररथश्चार्यः II. 32.17a सूतस्ततः संत्वरितः II. 46.26a सूतस्तु रथनेतास्य VI. I03.30a सूतस्य तमसातीरे II. 46.16c ,, परमाद्भुतम् VII. 51.28b , वचनं श्रुत्वा II. 59.17a , विचरिष्यतः VI. 89.41b Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002795
Book TitleValmiki Ramayana Pada Suchi Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGovindlal H Bhatt
PublisherOriental Research Institute Vadodra
Publication Year1966
Total Pages1190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size26 MB
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