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________________ ६७८ धर्मशास्त्र का इतिहास का अन्तर बतलाया है। बहत-से निबंधकारों एवं टीकाकारों ने भी उत्तरीय और दक्षिणी लोगों के विभिन्न आचारों पर प्रकाश डाला है, किन्तु हम इस विषय के विस्तार में स्थानाभाव से नहीं पड़ेंगे। विवाह के क्षेत्र में बहुत प्राचीन काल से ही देशों एवं कुलों के आचार स्वीकृत किये गये हैं। हमने इस अध्याय के आरम्भ में ही आश्व० ग० सू० (१।७।१-२) का उल्लेख कर दिया है। इस गृह्यसूत्र के टीकाकार हरदत्त एवं नारायण ने वर्णन किया है कि कुछ देशों में विवाह के उपरान्त ही पति-पत्नी में शरीर-संबंध स्थापित हो जाता है, किन्तु इस गृह्यसूत्र (१।१।१०) के अनुसार लम्बी अवधि नहीं तो कम से कम तीन रातों तक ब्रह्मचर्य रखना चाहिये । किन्तु टीकाकारों ने यहाँ पर देश की रीति की अपेक्षा गृह्यसूत्र-वचन को वरीयता दी है। आप० गृ० सू० (२।१५) ने कहा है कि लोगों को स्त्रियों से विधि सीखनी चाहिये, अर्थात् देश के आचार के अनुसार विधि के पालन में स्त्रियों की सम्मति ली जानी चाहिये । इस गृह्यसूत्र के टीकाकार सुदर्शनाचार्य का कहना है कि कुछ विशिष्ट कृत्य, यथा--नक्षत्रपूजा, अंकूरारोपण एवं प्रतिसर (कलाई में बाँधा जानेवाला धागा) रीति-प्राप्त कृत्य हैं और वैदिक मंत्रों से सम्पादित होते हैं । काठक गृह्यसूत्र (२५७) ने देशों एवं कुलों के आचारों अथवा रीतियों को विवाह के लिए मान्य ठहराया है और टीकाकारों ने ऐसे आचारों की चर्चा भी की है, यथा--देवपाल ने आगमन-उद्देश्य के कथन, कन्या के नाम के उच्चारण, कुलदेवता की पूजा, लता-फूलों के फेंकने की ओर संकेत किया है । टीकाकार ब्राह्मणबल का कथन है कि कश्मीर में विवाह के समय सास अथवा कोई सधवा नारी वर और वधू के सिरों पर शुभसूचक माला बाँधती है, सास वर के पैरों, घुटनों, कंधों एवं सिर पर पुष्प रखती है और कन्या के शरीर के उन्हीं स्थानों पर उलटी विधि से पुष्प (पहले दायें अंग पर, तब बायें अंग पर) रखे जाते हैं। हरदत्त (गौतम ११।२०) ने निम्न रीतियों का उल्लेख किया है; चोल देश में, जब सूर्य वृष राशि में रहता है तो कुमारियाँ विभिन्न रंग के वर्षों से पृथ्वी पर सूर्य के वृत्त को परिचारकों के साथ खींचती हैं और प्रातः-सायं पूजा करती हैं ; मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को कुमारियाँ आभूषण धारण कर गाँव में घूमती हैं और इस भ्रमण से उन्हें जो कुछ प्राप्त होता है, उसे मंदिर की मूर्ति पर चढ़ा देती हैं । जब सूर्य कर्क राशि में होता है तो वे उमा देवी की पूजा करती हैं और (जब चन्द्रमा पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में रहता है) देवताओं को उर्द (मुद्ग) के दाने चढ़ाती हैं। जब सूर्य मीन राशि में होता है और चन्द्रमा उत्तरा फाल्गुनी में, तो गृहस्थ लोग लक्ष्मी की पूजा करते हैं। और देखिये आप० ध० सू० (२।६।१३।६०) एवं बृहस्पति तथा तंत्र वार्तिक, जिनके कथनों का उल्लेख इस सिलसिले में ऊपर किया जा चुका है। इसी प्रकार के अन्य लेखकों द्वारा प्रस्तुत दृष्टांत उपस्थित किये जा सकते हैं, किन्तु हम स्थानाभाव से उनका यहाँ उल्लेख नहीं करेंगे। पारस्करगृह्यसूत्र (१८) के मत से ग्राम-वचनों का भी पालन किया जाना चाहिये--"विवाह और अंत्येष्टि कृत्यों के विषय में गाँव में प्रवेश करना चाहिये" (ग्राम-वृद्धों की सम्मति ली जानी चाहिये), क्योंकि "ग्राम इन दोनों विषयों में प्रमाण माना जाता है।" प्राचीन काल से लेकर आज तक बहुत-से जाति-आचारों एवं प्रचलनों को मान्यता मिलती रही है । गौतम (११।२०), वसिष्ठ (१।१७), मनु (१।११८, ८१४१ एवं ४६), कौटिल्य (३७) तथा शुक्र (४।५।४७) ने जाति-आचारों की वैधानिकता पर बल दिया है और राजा द्वारा उन्हें रक्षित एवं शासित किया जाना माना है। याज्ञ० (१।३६१) ने उन लोगों को राजा द्वारा दंडित होने योग्य माना है जो कुल, जाति, श्रेणी या वर्ग के आचारों से हट जाते हैं। कात्यायन (४०) ने व्यवस्था दी है कि राजा को प्रतिलोम जातियों के स्थिर आचारों एवं पर्वतीय दुर्गों या दुर्लध्य स्थानों के निवासियों के व्यवहारों का भी तिरस्कार नहीं करना चाहिये, भले ही वे स्मृति-नियमों के विरोध में पड़ जाते हों। परिभाषाप्रकाश में मित्र मिश्र ने कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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