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धर्मशास्त्र का इतिहास
जैसे रोगों से पीड़ित हो, उस कुल की कन्या अथवा वैसे रोगों वाली कन्या से विवाह नहीं करना चाहिये । कुल्लूक का कहना है कि आयुर्वेद के मत से ऐसे रोग वंशानुक्रमी हैं और यदि इस प्रकार की किसी लड़की से विवाह किया जाय तो उसके वंशज उसके रोगों से पीड़ित हो जायँगे, अतः ऐसा प्रतिबन्ध स्पष्ट मानसिक वृत्ति पर आधारित समझा जायगा । इस कथन से धर्मशास्त्रकारों ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाला है--यदि कोई व्यक्ति कोई धार्मिक कृत्य करते हुए या किसी विषय में संलग्न रहते हुए किसी ऐसे नियम का उल्लंघन करता है जिसके पीछे कोई लौकिक उद्देश्य हो, तो वह कृत्य या विषय अवैधानिक या अपूर्ण नहीं सिद्ध होगा, किन्तु जब कोई ऐसा नियम, जो पारलौकिक उद्देश्य पर आधारित हो, न माना जाय अथवा जब उसका अतिक्रमण किया जाय तो तत्संबंधी कार्य अवैधानिक एवं व्यर्थ सिद्ध हो जाता है । याज्ञ० (१।५२ एवं ५३ ) ने व्यवस्था दी है कि निर्वाचित वधू असाध्य रोगों से रहित होनी चाहिये, उसका कोई जीवित भाई होना चाहिये, उसे वर की सपिंड नहीं होना चाहिये और न सगोत्र या सप्रवर होना चाहिए; इस कथन की व्याख्या मिताक्षरा ने इस प्रकार की है-- यदि कोई व्यक्ति असाध्य रोग से पीड़ित कन्या से शादी करता है तो विवाह वैधानिक माना जायगा, केवल यही समझा जायगा कि उसने दृष्ट परिणामों (अर्थात् उसके लड़के रोगों से पीड़ित होगें, यह जानकर भी वह ऐसा करता है) की चिन्ता नहीं की, किन्तु यदि वह किसी सपिंड या सगोत्र या प्रवर कन्या से विवाह करता है तो वह विवाह न तो वैधानिक माना जायगा और न वह कन्या वैधानिक पत्नी मानी जायगी । सपिड या सगोत्र कन्या से विवाह न करने के प्रतिबन्ध के साथ कोई अति स्पष्ट उद्देश्य नहीं सम्बन्धित किया जा सकता; अतः इस प्रतिबन्ध के पीछे कोई आध्यात्मिक अथवा पारलौकिक उद्देश्य होगा और इसलिए यदि कोई इसका अतिक्रमण करता है तो तत्संबंधी कार्य (विवाह) अवैधानिक सिद्ध हो जाता है ।
कुमारिल के तंत्रवार्तिक ने इस विवेचन के विषय में एक बड़ी लम्बी टिप्पणी दी है। उसने शबर का विरोध किया है, यथा मीमांसा का संबंध धर्म की खोज से है, धर्म के विषयों में श्रुति महत्तम प्रमाण है, मीमांसा का संबंध स्मृतियों से उसी सीमा तक है जहाँ तक धर्म के विषयों में उनकी प्रामाणिकता का प्रश्न उठता है । जिस प्रकार कृषि आदि के विषय में मीमांसा के ग्रंथ मौन हैं क्योंकि ऐसे कार्य केवल लौकिक महत्त्व रखते हैं, उसी प्रकार वे सभी कार्य, जिन्हें व्यक्ति स्पष्ट लौकिक उद्देश्य को लेकर करते हैं, धर्म के अनुसंधान से सम्बन्धित नहीं माने जा सकते। अतः भाष्यकार (शबर) का यह कथन कि श्रद्धास्पदों (वृद्ध मनुष्यों अथवा आचार्यों) का स्वागत उठ कर करना चाहिये, स्पष्ट लौकिक उद्देश्य रखता है और इसलिए प्रामाणिक माना जाना चाहिये; ठौक नहीं जँचता । कुमारिल ने आगे कहा है कि दृश्य या अदृश्य ( स्पष्ट अथवा अस्पष्ट) या आध्यात्मिक उद्देश्य बहुधा एक-दूसरे से जटिल रूप से संगुम्फित | जब वेद ऐसी व्यवस्था देता है कि ( 'व्रीहीन वहन्ति') 'वह धान कूटता है, या 'वर्षा के लिए कारीरी यज्ञ किया जाय, तो यहाँ पर स्पष्ट उद्देश्य ( यज्ञ के लिए धान कूटकर चावल निकाला जाना ) परिलक्षित है । अतः एक स्पष्ट उद्देश्य वाले कर्म के पीछे वेद का आधार हो सकता है । उसी प्रकार आचार्य के प्रति उठकर सम्मान प्रदर्शित करना एक स्पष्ट परिणाम (यथा आचार्य प्रसन्न होकर उत्साह के साथ शिष्य को पढ़ायेगा ) एवं अस्पष्ट परिणाम ( यथा निर्विघ्नता के साथ वेदाध्ययन की परिसमाप्ति) का द्योतक हो सकता है । इसीलिए उन्होंने तर्क दिया है कि सभी स्मृतियाँ प्रामाणिक हैं, उस सीमा तक जहाँ डद्देश्य की पूर्ति होती हैं । उनके वे अंश जो अंश धर्म एवं मोक्ष ( संसार से अन्तिम छुटकारा ) से सम्बन्धित हैं, वेद पर आधारित हैं और वे अंश जो धन-सम्पत्ति एवं अर्थ काम संबंधी इच्छाओं की पूर्ति से सम्बधित हैं, लौकिक व्यवहारों पर आधारित हैं । इसी प्रकार महाभारत एवं पुराणों के उपदेशात्मक अंशों की भी व्याख्या की जा सकती है, क्योंकि उनमें वर्णित घटनाएँ अर्थवादों (ऐसी प्रशंसाओं जो धार्मिक कर्तव्यों के अर्थ में घोषित हैं ) के रूप में उपयोगी है । पृथ्वी के कतिपय खंडों का वर्णन इसलिए हुआ है क्योंकि धर्म - सम्पादन और उससे उत्पन्न आनन्द के लिए उपयुक्त देशों की ओर संकेत मिल जाते हैं । ये बातें अंशतः वेद और प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित सी हैं। इसी प्रकार वेदों के सहायक
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