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________________ ४८ अमरसेणचरिउ इन श्लोकों में कडवकों के मध्य अथवा अन्त में जिन श्लोकों का उल्लेख किया गया है वे इतर रचनाओं से लिये गये तथा सन्धि के अन्त में दिये गये वे श्लोक जिनमें चौधरी देवराज को मंगल कामनाएँ की गयी हैं स्वयं कवि के द्वारा रचे गये प्रतीत होते हैं। कहीं-कहीं श्लोकों पर प्राकृत और अपभ्रंश का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । कुछ पद्यों में छन्द और व्याकरण की अशुद्धियाँ भी हैं। ___ अपभ्रंश : कवि माणिक्कराज के द्वारा व्यवहृत भाषाओं में अपभ्रंश दूसरी भाषा है। प्रस्तुत भाषा में कवि ने इस ग्रन्थ में बुन्देली बोली के अनेक शब्दों का प्रयोग किया है। अपभ्रंश-व्याकरण सम्बन्धी कुछ तथ्य निम्न प्रकार हैं१. 'ऋ' ध्वनि के स्थान पर अ इ ई उ ए और अर तथा रि के प्रयोग हुए हैं । उदाहरणार्थ शब्द निम्न प्रकार हैंणच्चंति (नृत्यन्ति )-१।११।११ । घरि ( गृहे)-४।५।१६ । किय ( कृत )-१।९।१ । अमिय ( अमृत )-१।९।८ । दीसइ ( दृश्यते)-३।५।१० । पुच्छइ ( पृच्छति ) ६।४।१४। उसव्भपुरु ( ऋषभपुर ) १।१२।१० । गेह ( गृहम् ) ४।१०।१३ । भायर ( भातृ) २।५।४ । रिसि ( ऋषि ) १।५।१५ । २. ऐ स्वर के स्थान में अइ और ए के प्रयोग । यथा कइलास ( कैलाश ) ६।९।१० । कइरव ( केरव ) १।४।१३। चेयालय ( चैत्यालय ) ५।१४।१३ । देव (दैव ) ५।५।१९ । ३. औ स्वर के स्थान में 'उ' स्वर के प्रयोग । यथा कउडो ( कौड़ी) ५।११ । कउसिय ( कौशिक) २।९।१६ । चउक्क ( चौक) १।१२।१७ । चउपहि ( चौपाई) १८१२ । चउधरि ( चौधरी) १२४७ । चउरासी ( चौरासी) ६।१३।९ । ४. 'उ' स्वर के स्थान में 'ओ' स्वर का प्रयोग । यथा__ ओयरि ( उतर कर ) १९/२२ । ओच्छालइ ( उच्छालइ ) १।१५।८। ५. 'औ' स्वर के स्थान में 'ओ' के प्रयोग । यथा चोर ( चौरः) ४।३।११-१२ । श, ष और स के स्थान में 'स' के प्रयोग । यथालेसु ( लेश्या) ७१५।१३। आयास (आकाश) ११२२, ३।१२। आसा (आशा) १।१६।२२। आसीस ( आशीष ) ५।४।१६ । दोसु ( दोष ) १।१५।१३। तिसु ( तृषा) १११।१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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