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________________ ४६ अमरसेणचरिउ अपनी माता के स्तन से क्रीडा करता हुआ बताया है । पद्य निम्न प्रकार करि कराइ जुवहिं णिज्जंतई । वालइ माय-थणे कीलं ||२३|९ कवि ने भयानक रस के उदाहरण में प्रस्तुत अवतरण में वन - पशुओं के स्वभाव का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है । सघन वन कैसा होता है कवि ने उसका जीता-जागता वर्णन किया है । यमक अलंकार: कवि ने प्रस्तुत काव्य के एक ही पद्य में से ऐसे दो समान शब्दों का प्रयोग भी किया है जिनके अर्थ भिन्न-भिन्न हैं । उदाहरणार्थ द्रष्टव्य हैं कवि की वे पंक्तियाँ इय चउधरियहं वयणें, वियसिय वयणें पंडिणा हरसेविणु । १७ इस अवतरण में वयणें शब्द का दो बार व्यवहार हुआ है । इनमें प्रथम वयणें का अर्थ है वचन और दूसरे वयणें का अर्थ है( मुख ) । इस प्रकार यहाँ यमक अलंकार की अभिव्यक्ति की गयी है । वदन श्लेष अलंकार : कवि ने ऋषभपुर नगर के वर्णन प्रसंग में इस अलंकार का यथेष्ट प्रयोग किया है । उदाहरण स्वरूप द्रष्टव्य हैं प्रस्तुत काव्य की दो पंक्तियाँ कर-पीडणु पाणिग्गहणु जहि । १।१२।२ पक्खवाउ जहि वयसंघार्याह । १।१२/५ यहाँ प्रथम पंक्ति में करपीडणु शब्द में और दूसरी पंक्ति में पक्खवाउ शब्द में श्लेष है । इनमें करपीडणु के दो अर्थ हैं - (१) हाथ पकड़े जाने की पीड़ा । (२) टेक्स देने में उत्पन्न पीड़ा ( कष्ट ) । इसी प्रकार पक्खवाउ के दो अर्थ हैं— (१) पंख गिरना (२) पक्षपात ( अपने-पराये का भेदभाव ) । इन पंक्तियों का अर्थ है- जहाँ कर पीडा पाणिग्रहण में ही होती थी अर्थात् कर (टेक्स ) देने में पीड़ा नहीं होती थी । जहाँ पंखों का गिरना पक्षियों के संघात से ही होता था अर्थात् पक्षपात ( भेद भाव ) लोगों में नहीं था । भाषा कवि माणिकराज ने प्रस्तुत ग्रन्थ में दो भाषाओं का प्रयोग किया है – संस्कृत और अपभ्रंश । इनमें संस्कृत भाषा में रचे गये श्लोकों का उल्लेख कवि ने दो प्रकार से किया है - (१) आशीर्वादात्मक विचारों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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