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________________ १६९ चतुर्थ परिच्छेद करके आकाश से चली गयी । हे विद्याधर ! क्या करूँ, आकाश-गमन से भ्रष्ट हूँ॥१७-१८॥ अब मेरा घर जाना कठिन जानो। भले ही मेरा मरण होवे ।।१९।। __ घत्ता-ऐसा सुनकर वहु विद्याधारी विद्याधर ने कहा-कुमार, खेद मत करो, धैर्य धरो। मैं अपने विमान से तुम्हें तुम्हारे स्थान पर ले चलता हूँ। यह अपने चित्त में धारण करो, डरो नहीं ॥४-७।। ___कहा भी है-वेश्या, चोर, वैद्य, भाट का पुत्र, राजा, लोभी और शिशु इन सातों द्वारा पराया दुःख नहीं जाना जाता ॥छ।। | ४-८ [वइरसेन का रासभ रूप में परिवर्तित होना तथा विद्याधर द्वारा मनुष्य बनाया जाना] विद्याधर कहता है-हे गुणों के सागर, भूमिगोचर ! आप कुछ दिन कामदेव के मन्दिर में रहें । मदनदेव की मूर्ति को आनन्दित मन से पूजें, मन की इच्छानुसार घूमना नहीं ।।१-२॥ देव-मन्दिर को पश्चिम दिशा में दो वृक्ष हैं, निश्चय से वहाँ नहीं जाना और न उनकी ओर देखना ॥३॥ एक वृक्ष पर भयंकर व्यंतर और दूसरे वृक्ष पर दुष्ट विचित्र राक्षस रहता है॥४॥ तुझ पर दृष्टि पड़ते ही नहीं छोड़ेगा, तिल के बराबर टुकड़े कर करके खा जावेगा ॥५।। इसलिये हे नृपति ! तुम्हारे मन को प्रिय हो तो भी विद्याधर की बात मानकर न देखना और न जाना ॥६॥ ऐसा कहकर विद्याधर अपने कार्य वश चला गया। जिनेन्द्र-भक्त राजपुत्र सुखपूर्वक रहता है ।।७।। दूसरे दिन कुमार हर्षित चित्त से वन में ( वहाँ ) गया (जहाँ) वे वृक्ष स्थित थे ।।८॥ कौतूहलवश देखने वह वहाँ गया। एक वृक्ष के सुन्दर फूल लिए ॥९॥ कुमार अपनी नासिका से गधा बनाने में अति समर्थ वे ( फूल ) सूघे ॥१०॥ फूलों के प्रभाव से कुमार गधा बन गया। कर्म-कृत मनुष्य का शरीर लुप्त हो गया ।।११।। दूध पोनेवाला गर्धभी का वह पुत्र अपनी इच्छानुसार नदी के नीचे की गीली भूमि में जाकर [ अपना ] शरीर धोता है | लोटता है ।।१२।। वह दूसरे-दूसरे कर्म करते हुए चिरकाल के विविध प्रकार के अन्य-अन्य जीवों में रम जाता है ॥१३।। पन्द्रह दिन बीतने पर विद्याधर आया। उसे सुन्दर शरीरवाला राजपुत्र ( कुमार ) दिखाई नहीं दिया ।।१४।। वहाँ उसे पों-पों करते हुए रेंकते हुए ( यह गधा ) दिखाई दिया। विद्याधर ने तुरन्त इसे मनुष्य से (गधा ) हुआ जान लिया ॥१५।। ( विद्याधर ने ) गधे के अशुभ को नष्ट करनेवाला दूसरे वृक्ष का फूल लेकर उसे सुपाया ।।१६।। उसके प्रभाव से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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