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चतुर्थ परिच्छेद
१५९ [४-३] [चोरों का पश्चाताप, वइरसेन को वस्तुओं को प्राप्ति एवं
कंचनपुर-आगमन ] ऐसा सुनकर कुमार वइरसेन ने कहा-तुम्हारा झगड़ा अभी तुरन्त मिटाता हूँ ।।१।। मैं यहाँ सबको सुखकारी वस्तुएँ तुम चारों को बाँट देता हूँ ॥२॥ ( वे चोर ) उसे भव्य और उपकारी मानकर सुखपूर्वक पैदल ही अपने घर ले गये ॥३॥ कला और विज्ञानमति से युक्त राजपुत्र ने चोरों का कथन सुनने के पश्चात् कहा-तुम अपने स्थान-घर पर मनोरथ की पूर्ति करने में समर्थ तीनों वस्तुएँ शोघ्र मुझे दो ॥४-५।। उन्होंने वस्तुएँ दी। वइरसेन ने वस्तुएँ अपने हाथ में लेकर पावली स्वस्थ चित्त से चरणों में पहनी ॥६।। लाठी हाथ में लेकर और रत्न देनेवाली कथरी हृदय पर पहिनकर वह धूर्त हर्ष युक्त होकर शीघ्र आकाश ( मार्ग ) में गया और पर्वत, समुद्र, नदी तथा नगर लाँधकर वीरों में प्रधान वीर और धों में प्रधान धूतं वह शीघ्र कंचनपुर पहुँचा ।।७-९।। पूर्व में सुपात्र को दिये गये दान रूपी शभ कर्म से उसे सम्पत्ति प्राप्त होती है ॥१०॥ प्रधान चोर तब वहाँ दुःखी होता है, सिर कूटता है और हाथ मलता रह जाता है ।।११।। ( वह कहता है )--यह मायावी चोरों को मूसकर ( उन्हें) आकाश से जा रहा है। हम यदि ठग हैं तो वह महाठग है ॥१२।। (वे चोर पश्चाताप करते हुए कहते हैं ) हाय ! हाय ! हे विधाता ! तूने हम पर यह क्या किया ? मन-इच्छित फल देनेवाली वस्तुएँ देकर क्षण भर में ले लीं ॥१३॥ छह मास पर्यन्त भूख-प्यास आदि के अनेक दुःख सहकर और वन में रहकर योगी का वध करके तीन विद्याएँ प्राप्त की थीं, जिन्हें छल करके दूसरा क्षण भर में ले गया ॥१४-१५।। अब क्या करूँ, किससे यह वार्ता कहूँ ? वह धूर्त कहाँ गया? हे भाई! नहीं जानता हूँ॥१६॥ ऐसा विचार करके वे अपने-अपने घर गये । इसके पश्चात् कुमार हर्षित चित्त से पवित्र कथरी को झाड़ता है, सात सौ रत्न पृथिवी पर गिरते हैं। उन्हें लेकर गुणों से गम्भीर यह दुष्ट कुमार नगर-वासियों के साथ घूमता है और जुआ खेलता है ।।१९।। अपनी इच्छा के अनुसार अनेक प्रकार के भोग भोगता है, अनेक प्रकार के दान देकर नगर-वासियों का मनोरंजन करता है ॥२०॥
पत्ता-कामदेव के समान रूपवान्, अगणित वैभवधारी, स्त्रियों के हृदय में भ्रमर के समान कुमार दूसरे दिन वेश्या को दिखाई दिया । याचक उसका यश-गान करते हैं ॥४-३।।
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