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________________ चतुर्थ परिच्छेद १५७ [४-२] [वइरसेन को चोरों से तीनों को वस्तुओं एवं उनके माहात्म्य की प्राप्ति ] ___ भव्य जनों के योग्य ये वस्तुएँ तीन हैं और हम लोग चार हैं अतः बटवारा नहीं होता है ॥१॥ हे योगो ! इसी कारण से ( हम ) झगड़ते हैं । कोई हमारा झगड़ा नहीं मिटाता है ॥२॥ हे सुमुख, भव्य मित्र ! यदि जानकार हो तो हमारे ऊपर दया करके झगड़ा मिटाओ ।।३।। उसके द्वारा कहे गये वचन सुनकर कुमार ( वइरसेन ) ने कहा--इन तीनों वस्तुओं के एक साथ गुण कहो ॥४॥ जिस प्रयोजन से बार-बार लगे हो हे राजन् ! वन में भय से दुःखी होकर कहता हूँ सुनो---||५|| वहाँ निर्जन वन की श्मशान भूमि में एक योगी विद्या की साधना करता है ॥६॥ उस योगी ने छह मास पर्यन्त निरन्तर साधना की जिससे बहुत काल में सिद्ध होने वाली विद्या उसे सिद्ध हुई ॥७॥ विद्या ने संतुष्ट होकर इस योगी को कथरी, लाठी और पावली दी ॥८॥ विद्या तीनों वस्तुओं के गुण कहकर चली गयी। योगी के साथ हमने (भी) आश्चर्य ( सहित) सुना ॥९|| इस वन में छह मास पर्यन्त रहकर हम ही ने वहाँ योगी का घात किया ॥१०॥ ये तीनों वस्तुएँ हम ले आये। हे मेरे भाई ! अब जो जानो करो ॥११॥ उनके वचन सुनकर वइरसेन ने कहा-हे शुद्ध हृदय ! मुझे जो प्रिय है ( वस्तुओं का गुण ) ( वह ) कहो ॥१२।। तब प्रधान चोर कहता है सूनो-इस कथरी से रत्नमणि झड़ते हैं ॥१३॥ सूर्य के समान दीप्तिमान् दरिद्रता के विनाशक सुख देनेवाले ( वे रत्न) प्रतिदिन झड़ते हैं ॥१४॥ लाठी बादलों में बिजली के समान शीघ्रता से घूमती है ॥१५॥ वह सैन्यदल के सिर रूपी कमलों को खंड करके शीघ्र अपने स्वामी की हथेली पर पुनः आ जाती है ॥१६॥ जो पावड़ी पैरों में पहिनता है वह उसकी क्षण भर में इच्छा पूर्ति करती है ।।१७।। वह क्षण भर में आकाश के मध्य में ले जाकर मर्कट के समान आकाश में घूमती है ।।१८।। पश्चात वह वेग पूर्वक अपने स्थान पर आ जाती है। पावली को आकाशगामिनी जानो ।।१९।। घत्ता-उससे समस्त वृत्तान्त सुनकर और हृदय में धारण करके कुमार वहाँ चुप रहा। इस प्रकार उसे तीनों वस्तुएँ विधिपूर्वक संयोग से हाथ लग जाती हैं ।।४-२॥ __ कहा भी है-दान, तप, वीर्य, विज्ञान और विनय में विस्मय नहीं करना चाहिए । पृथिवी बहु रत्नों को धारण करनेवाली है ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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