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________________ १५५ चतुर्थ परिच्छेद [४-१] [ वइरसेन की तस्करों से भेंट एवं पारस्परिक वार्तालाप ] ध्रुवक आम्रवृक्ष से सम्बन्ध रखनेवालो जब विद्या चली गयी ( तब ) राजपूत्र वइरसेन मन में खेद-खिन्नित होता है। तब श्रुतज्ञान के बल से उसके द्वारा जिस-किसी प्रकार थोड़ा धैर्य धारण किया गया ॥छ।। राजपुत्र अपने मन से इस प्रकार चिंतन करता है कि इस समय वह तत्काल उद्यम करे ॥१।। बिना उद्यम के कार्य की सिद्धि नहीं । उद्यम किए बिना ऋद्धि नहीं होती ॥२॥ राजपुत्र नगर में घूमता है। कहीं भी रहो अर्जित कर्म दुःख देते ही हैं ॥३॥ संध्यावेला में वह नगर के बाहर उपवन के एक निर्जन देवालय में गया ॥४॥ उसमें जहाँ वइरसेन बैठा, वहाँ कोई एक दूसरा भी होता है ।।५।। वह जिनेन्द्र के चरणों का उपासक अपने देश, भाई और आठों ऋद्धियों का त्याग करके ( वहाँ) नवकार मन्त्र जपता है ।।६।। उसी समय अर्द्धरात्रि में पाप की मूर्ति (वहाँ) चार चोर आते हैं ।।७।। ( उन्हें ) घर-द्वार छोड़कर जयी योग में रत लीन विद्याओं सहित योगी विद्याधर की-पराये धन के लोभी, मलिन वस्तु के खानेवाले अति विरुद्ध वे पल भर में योगी को लूट करके देवालय में जहाँ कुमार बैठा था वहाँ आकर परस्पर में झगड़ते हैं ॥८-१०|| उसी समय संकेत करके यह चोरों को शीघ्र वहाँ ले गया ( जहाँ वह था ) ।।११।। वहाँ रात्रि में कुमार के द्वारा चोरों से पूछा गया कि तुम क्यों झगड़ते हो, इष्ट बात कहो ।।१२।। तब कुमार ने पहरेदार को बुला लिया और शीघ्र अपने पास बैठा लिया ॥१३।। कुमार पूछता है-हे भाई ! परस्पर में यहाँ किस कारण से झगड़ते हो।।१४।। वह कारण एवं रहस्य मुझे बताओ, मैं निश्चय से तुम्हारा झगड़ा मिटाता हूँ ॥१५।। घत्ता-रात्रि में कुमार के सुखकर वचन सुनकर और मन में धारण करके चोर कहता है-आप सुनें। बहुत गुणों से युक्त कथडी, पावडी, और लाठी ये हमारी तीन वस्तुएँ हैं ॥४-१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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