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________________ १०६ अमरसेणचरिउ घत्ता धण्णकरु पुण्णकरु, भाइ कम्मकरु, सुहभावण-भावे वि मणे। किउ कालु समाहिहि, णव-पय भावहि, जें णर-सुर-पउ होइ जणि ॥१॥ [२-२] सणिकुमरि-सग्गि ते वे वि जाय । उप्पायसिलाहिं वि जम्मु-पाय ॥१॥ विभिय जो कहिं ते दस-दिसाई । को यहं ठाणु वि किं पुणियाई ॥२॥ इय चितंतें तहं अवहिणाणु । उप्पण्णउ जाणिउं सयलु जाणि ॥३॥ रिसि-सायर भुंजि वि परम आउ । अच्छर-यण-समु पुणु मुंचि काउ ॥४॥ इह जंवूदीवहं भरहवरिसु । संठियउ पसिद्ध [क] कुलिंग-देसु ॥५॥ तहि दलवट्टणु णामें पट्टणु । वहु वेरिहु वि सेण-आवट्टणु ॥६॥ वड-विच्छव संदीसहि पत्तइँ। उ हिंसणुहिंसइ [तह] पत्तइँ ॥७॥ चउ-गोउर-मुह णं कमलासणु । उज्जल तिणि कोट्ठ ईसरतणु ॥८॥ तहं सूरसेणु णरवइ पयंडु । अरि-गिरि-सिरदलणहं वज्जदंडु ॥९॥ तं सयलंतेउर उप्परि राणी । णामें विजयादेवि-सयाणी ॥१०॥ इत्थंतरि कुरुदेसु खण्णउं । गजपुरु णामें धण-कण-पुण्णउं ॥११॥ तहि णखइ अइवलु देवदत्तु । देवसिरि भज्जहि रइहि रत्तु ॥१२॥ सह पुहमि पहाणउणिवह [हिं] पुज्जु । णिय तेयं-जित्तिउ जेण सुज्जु ॥१३॥ तहं गजपुर-सामिहि सूरसेणु । लग्गियउ केर तं मणि-रवण्णु ॥१४॥ संतुट्ठउ णखइ दिण्ण देस । वहु हय-गय-चामरच्छत्त-कोस ॥१५॥ तहं सूरसेणु णिउ रहइ जाम । विजयादेविहि संजुत्तु ताम ॥१६॥ भुंजइ भोयइ सो वि णरेसरु | सह-सत्तु-दयालउवुद्धिहि-सुरगुरु ॥१७ तहं समयहं पुव्वहं भावणेहिं । मुणि-चारण-जुयलहं दाणवेहिं ॥१८॥ धण-पुण्णं केउ कमेण सरि। उप्पणई विजयादेवि-उरि ॥१९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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