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________________ ९० अमरसेणचरिउ जिम जिम काया अणुहवइ सुक्ख । तिम तिम जाणेवउ अधिक दुक्ख ॥७॥ जाणंतु सहइ जइ दुक्ख देहु । खउ पाव - पुन्नउ विति एहु ॥८॥ इम जाणि अथिरु संसार वक्कु । संजम करि अप्पर पाव- मुक्कु ॥९॥ परिहरि कोहाइ कसाय चारि । पसरंतु पंच इदिय निवारि ॥१०॥ वाहिरि अभितरि तव - विहाणि । करि पुग्नह संचय कम्महाणि ॥ १॥ अह पालि न सक्कइ जइचरित्तु । तउ दृढ करि सावयधम्मि चित्तु ॥ १२॥ पंचेदियतु मणुयत्तखित्तु | आयरिय जणे सुकुलत्त वित्तु ॥ १३ ॥ गुरुदेवहं सो मग्गो लहेवि । इक चित्ति सुद्ध जिणधम्म सेवि ॥ १४॥ रे जीव म जाणिसि व िलहेसु । मणुयत्तणि चिंतामणि लडु समुद्दमज्झि । पडियउ वलि लब्भइ केम वुज्झि ॥ १६ ॥ सावयकुलि - पवेसु ॥१५॥ घत्ता सम्मत्तु धरिज्जइ पाणपिउ, पणवीस वि दोसहि चुक्कउ । गुण अट्ठसहिउ पाएहि मणि, वसु अंगेहि सहिक्कउ ॥१-१७॥ [ १-१८ ] अरिहंत-देउ । णिग्गंथ-सुगुरु ॥५॥ दय- मूलधम्म गुरु-वयण-जाणि मिच्छत्त मग्गि । कुदेउ - कुगुरु-पुट्ठिहिं सिज्झइ-मुणिंद चारित्तु भट्टु । सिज्झइ कुल-सावय- मग्गु-नट्टु ॥३॥ संमत्तहीण सिज्झइ न जेण । अरिहंतु इक्कु मणि धरिउ तेण ॥४॥ सीयल- गो-गा- चामुंड - चंडि । खितपाल - विनायक - पमुहच्छंडि गणगउरवच्छवारसि-विसासि । ए फलु संपज्जइ नरइवासि ॥६॥ वडसाइति कुलदेवति सराधु | करना सम्मत्तु वि घटइ आधु ॥७॥ संसारचक्कि जे रमहि देव । किम मुकतिहि कारण तीहिं सेव ॥८॥ सग्गंथ जि वुड्डइ अप्पभारि । ते गुरु किम सक्कइ परह तारि ॥९॥ जिणि धम्मि होइ जीवहं संघारु । किम लब्भइ तिणि संसारपारु ॥ १०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only समत्त एउ ॥१॥ म लग्गि ||२|| www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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