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________________ तरह पूरे साल कोई व्यक्ति मकान बंद कर बाहर चला जाय, किंतु म्युनिसिपालटी को नोटिस न दिया हो तो , बिजली आदि का टैक्स उसे भरना ही पड़ता है। इसी तरह पाप त्याग की प्रतिज्ञा नहीं है तो पाप चाल है। कर्म का भार बढ़ता रहता है। अतः यथाशक्ति समय की मर्यादा बांधते हुए व्रत, नियम, प्रतिज्ञा अवश्य ग्रहण करनी चाहिए, ताकि आत्मा पर व्यर्थ कर्म का भार न बढे। 3. प्रमाद: मोक्षमार्ग की उपासना में शिथिलता लाना और इन्द्रियादि के विषयों में आसक्त बनना यह प्रमाद है विकथा आदि में रस रखना भी प्रमाद है। जो आगम विहित कुशल क्रियानुष्ठानादि है उनमें अनादर करना प्रमाद है। मन-वचन-कायादि भोगों का दुष्प्रणिधान-आर्तध्यानादि की प्रवृति प्रमाद भाव है। मद, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा ये पाँच प्रकार के प्रमाद बताए गए हैं जो जीवों को संसार में गिराते हैं। पतन के कारणभूत प्रमाद स्थान कर्म बंध कराते हैं। 4. कषाय : जिससे संसार का लाभ हो वह कषाय है। अतः निश्चित हो गया कि जब जीव क्रोधादि कषायों की प्रवृत्ति करेगा तब संसार अवश्य बढेगा। संसार कब बढेगा ? जब कर्म बंध होंगे तब। अतः कषाय सबसे ज्यादा कर्म बंधाने में कारण है | कषाय भाव में जीव कर्म से लिप्त होता है। ये कषाय आश्रव में भी कारण है तथा कर्म बंध में भी कारण है। मूलरुप से देखा जाय तो राग-द्वेष ये दो ही मूल कषाय है। राग के भेद में माया और लोभ आते हैं। तथा द्वेष के भेद में क्रोध और मान गिने जाते है। 5. योग: जीव के विचार, वाणी एवं काय व्यवहार को योग कहते है। सारी प्रवृत्ति इन तीन कारणों के सहारे ही होती है। प्रत्येक क्रिया में ये तीन सहायक है। काया की क्रिया प्रवृत्ति कहलाती है तो मन की क्रिया वृत्ति के रूप में समझी जाती है। ये सभी कर्म बंध के कारण है। इस तरह मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँचों प्रमुख रूप से कर्म बंध के हेतु हैं। कर्मबंध के चार प्रकार आत्म-परिणामों में जब राग-द्वेष (कषाय) आदि का स्पंदन या कंपन होता है तथा मन, वचन, काय योग में चंचलता आती है तो वह कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को आकर्षित कर ग्रहण कर लेता है। जीव द्वारा ग्रहण किये जाने पर ये कार्मण वर्गणा कर्म रूप में परिणत होती है। इसे ही बंध कहते हैं। ग्रहण करते समय ही उनमें चार प्रकार के अंशों का निर्माण हो जाता है। ये चारों अंश बंध के चार प्रकार है। अर्थात् कार्मण वर्गणा के साथ आत्मा का संबंध होना बंध है। उस बंध के चार प्रकार है 1. प्रकृति बंध :- प्रकृति का अर्थ है स्वभाव । कुल आठ कर्म है, इनकी 148 उत्तर प्रकृतियाँ है। प्रत्येक का स्वभाव अलग - अलग है। कर्मों का जो स्वभाव है उसी के अनुरूप कर्म बँधता है अर्थात् बंधन होते ही यह निश्चित हो जाता है कि यह कर्मवर्गणा आत्मा की किस शक्ति को आवृत करेगी। जैसे ज्ञानावरण कर्म का स्वभाव ज्ञान गुण को आच्छादित करना है। यह इस कर्म का प्रकृतिबंध है। उदाहरण के लिए, मेथी का लड्ड वात-पित्त-कफ का नाशक है तो अजवाईन का लड्ड पाचन में सहायक है। यह लड्डु की प्रकृति या स्वभाव है। इसी प्रकार विभिन्न कर्मों का स्वभाव आत्मा के विभिन्न गुणों को आच्छादित करना है, यह मिथी। प्रकृतिबंध है। मशीका गोबीरहे गोद AAAAAAAA ARN87 Jan Education International For Private hersonal use only www.jainelibrary.org
SR No.002764
Book TitleJain Dharma Darshan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2010
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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