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________________ ७०४४४४४४५३३३३३३३३३३३३ कर्म का अस्तित्व संसार में हम जिधर भी देखें उधर विविधता एवं विषमता के दर्शन होते हैं। पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, नैतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक आदि जीवन के सभी क्षेत्रों में कर्म को प्रधानता दी जा रही है। भारतीय धर्मों और दर्शनों ने ही नहीं, पाश्चात्य धर्मों और दर्शनों ने भी किसी न किसी रूप में कर्म को स्वीकार किया है। पश्चिमी देशों में " गुड डीड" और " बैड डीड" के नाम से " कर्म' शब्द प्रचलित है। संसार में चार गति एवं चौरासी लाख जीव योनियाँ है, उन सब गतियों एवं योनियों में जीवों की विभिन्न दशाये एवं अवस्थायें दिखाई देती है। कोई मनुष्य है तो कोई पशु है । कोई पक्षी के रूप में है तो कोई कीड़ेमकोड़े के रूप में रेंग रहा है। मनुष्य जब से आँखे खोलता है तबसे उसके सामने चित्र विचित्र प्राणियों से भरा संसार दिखाई पड़ता है, उन प्राणीयों में कोई तो पृथ्वीकाय के रूप में कोई जलकाय के रूप में, कोई तेजस्काय के रूप में, कोई वायुकाय के रूप में, कोई विविध वनस्पतिकाय के रूप में दृष्टिगोचर होता है । कहीं लट इत्यादि बेइन्द्रिय जीवों का समूह रेंगता हुआ नजर आता है, कही जूँ, खटमल इत्यादि इन्द्रिय जीवों का समूह चलता फिरता नजर आता है। तो कही मक्खी, मच्छर इत्यादि चोरेन्द्रिय जीवों का समूह रुप में उड़ते, फुदकते दृष्टिगोचर होते हैं। इतना ही नहीं कुत्ते, बिल्ली, पशु पक्षी, इत्यादि पंचिन्द्रिय जीवों के रुप में दिखाई देते है। यह एकन्द्रिय से लेकर पंचिन्द्रिय तक के जीवों की अच्छी खासी हलचल दिखाई देती है। इनकी आकृति, प्रकृति रूप-रंग, चाल-ढाल, आवाज आदि एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न प्रतीत होती है। इतना ही नहीं हम मनुष्यगति को ही ले, वहाँ कितनी विषमतायें देखने को मिलती है। कोई शरीर से पहलवान लगता है तो कोई एकदम दुबला-पतला है। कोई रोगी है तो कोई निरोगी, कोई सुंदर सुरुप सुडौल लगता है तो कोई एक दम कुरुप एवं बेडौल दिखाई देता है। कोई बुद्धिमान है तो कोई निरामूर्ख हैं। किसी की बात सुनने को लोग सदा लालायित रहते है तो किसी का वचन भी कोई सुनना नहीं चाहता है। कोई व्यक्ति क्षमा, सहिष्णुता आदि आत्मिक गुणों की सजीव मूर्ति है तो कोई क्रोधादि दुर्गुणो का पुतला है । कोई चारों ओर धन वैभव - स्वजन • परिजन से विहीन दुःखमय जीवन व्यतीत करते हैं। - मनुष्यों और तिर्यंचों के अतिरिक्त नारक और देव भी है, जो भले ही इन चर्मचक्षुओं से दिखाई न दे, परंतु अतीन्द्रिय ज्ञानियों को दिव्य नेत्रों से वे प्रत्यक्षवत् दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार संसारी जीवों का विशाल और अगणित अनंत प्रकार की विविधताओं से भरा यह मेला है। चार गतियों वाले संसार में विविधताओं, विभिन्नताओं, विषमताओं एवं विचित्रताओं से भरे जीवों का लेखा जोखा है। संसारी जीवों में असंख्य विभिन्नताओं का क्या कारण है ? प्रश्न है कि प्रत्येक प्राणी के जीवन में यह विविधता और विषमता क्यों है ? हमारे तत्त्वज्ञानियों ने इस प्रश्न का समाधान देते हुए कहा है कि 44 - कर्मजं लोकवैचित्र्यं" विश्व की यह विचित्रता कर्मजन्य है। कर्म के कारण है। मानव बाह्य दृष्टि से समान होने पर भी जो अंतर दिखाई देता है, उसका कारण कर्म है। “ कम्मओणं भंते ! जीवों नो अकम्मओ विमति भावं परिणमई" अर्थात् हे भगवन ! क्या जीव के सुख दुःख और विभिन्न प्रकार की अवस्थाएँ कर्म की विभिन्नता पर निर्भर है, अकर्म पर तो नहीं ? भगवान महावीर ने कहा - 44 कम्मओणं जओ णो अकम्मओ विभति भावं ओ परिणमई । ' अर्थात् हे गौतम ! संसारी जीवों के कर्म भिन्न- भिन्न होने के कारण उनकी अवस्था और स्थिति में भेद है, यह For Private & Personal Use Only ********** www.jainelibrary.org
SR No.002764
Book TitleJain Dharma Darshan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2010
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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