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परस्त्रियां हैं। उनके साथ उपभोग करना अथवा वासना की दृष्टि से देखना, क्रीड़ा करना, प्रेम पत्र लिखना या अपने चंगुल में फंसाने के लिए विभिन्न प्रकार के उपहार देना, उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास करना, उसकी इच्छा के विपरीत काम-क्रीड़ा करना, वह बलात्कार है और उसकी इच्छा से करना परस्त्री सेवन है।
समाजशास्त्रियों ने परस्त्रीगमन के मुख्य कारण बताए हैं - (1) क्षणिक आवेश (2) अज्ञानता (3) बुरी संगति (4) पति के परस्त्रीगमन को देखकर उसकी पत्नी भी पथ-भ्रष्ट होती है (5) विकृत साहित्य-पठन (6) धन मद के कारण (7) धार्मिक अंध-विश्वास (8) सहशिक्षा (9) अश्लील चलचित्र (10) अनमेल विवाह (11) नशीले पदार्थ सेवन।
7. शिकार अपनी प्रसन्नता के लिए किसी भी जीवों को दुःखी करना शिकार है। शिकार मानव के जंगलीपन की निशानी है। शिकार मनोरंजन का साधन नहीं अपितु मानव की क्रूरता और अज्ञता का विज्ञापन है। क्या संसार में सभ्य मनोरंजनों की कमी है जो शिकार जैसे निकृष्टतम मनोरंजन का मानव सहारा लेता है। शिकार करना वीरता का नहीं, अपितु
कायरता और क्रूरता का द्योतक है। शिकारी अपने आप को छिपाकर पशुओं पर शस्त्र और अस्त्र का प्रयोग करता है। यदि पशु उस पर झपट पड़े तो शिकारी की एक क्षण में दुर्दशा हो जायेगी। वीर वह है जो दूसरों को जख्मी नहीं करता। दूसरों को मारना, उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करना यह तो हृदयहीनता की निशानी है। भोले-भोले निर्दोष पशुओं के साथ क्रूरतापूर्वक व्यवहार करना मानवता नहीं दानवता है।
व्यक्ति अनेक कारणों से शिकार करता हैं। जैसे :- 1. मनोविनोद के लिए 2. साहस प्रदर्शन के लिए 3. कुसंग के कारण 4. धन प्राप्ति के लिए 5. फैशन परस्ती के लिए 6. घर को सजाने के लिए आदि। शिकार के कई रूप हैं, जैसे - मनोरंजन के लिए कभी-कभी सांडों, मुर्गों, भैंसों, बिल्लियों, कुत्तों, बंदरों सांप-नेवला आदि जानवरों को परस्पर लड़ाना।
जो व्यक्ति दूसरों के प्राणों का अपहरण कर कष्ट देते हैं उन्हें सुख कहां प्राप्त हो सकता है? जो अपनी विलासिता, स्वार्थ, रसलोलुपता, धार्मिक अंध विश्वास अथवा मनोरंजन के लिए पशु-पक्षियों के रक्त से अपने हाथ को रंगते हैं, उन्हें आनंद कहां?
ये सातों व्यसन केवल पुरुष जाति के लिए ही नहीं हैं महिलाओं के लिए भी हैं। उन्हें भी इन व्यसनों से मुक्त होना चाहिए।
जैन साधना पद्धति में व्यसन-मुक्ति साधना के महल में प्रवेश करने का प्रथम द्वार है। जब तक व्यसन से मुक्ति नहीं होती, मनुष्य में गुणों का विकास नहीं हो सकता। इसलिए जैनाचार्यों ने व्यसन मुक्ति पर अत्यधिक बल दिया है। व्यसन से मुक्त होने पर जीवन में आनंद का सागर ठाठे मारने लगता है।
अतः व्यसन जीवन के सर्वनाशक है। ये जीवन को दुर्गति में ढकेलने का कार्य करते हैं। हमें इनसे बचने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए। जुआं खेलने से धन का नाश, मांस भक्षण से दयाधर्म का नाश, शराब से परिवार एवं समाज के हितों का नाश, शिकार से धर्म का नाश, चोरी से प्रतिष्ठा का नाश, परस्त्रीगमन-वेश्यागमन से तन, धन और मन का सर्वनाश करता हुआ मानव अधोगति का मेहमान बनता है। अतः साधकों को सदैव इन व्यसनों से दूर रहना चाहिए। जीवन को उन्नत बनाने के लिए व चरित्र निर्माण के लिये इन व्यसनों को छोड़ना नितान्त जरूरी हैं।
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