SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1. अन्न जृम्भक :- भोजन के परिमाण को बढा देना, घटा देना, सरस कर देना, नीरस कर देना आदि की शक्ति रखने वाले देव। . 2. पाण ज़म्भक :- पानी के परिमाण को घटा देने वाले या बढा देने वाले देव। 3. वस्त्र जृम्भक :- वस्त्र के परिमाण को घटाने और बढाने की शक्ति रखने वाले देव। 4. लयण जृम्भकः- घर मकान आदि की रक्षा करने वाले देव। 5. शयन जृम्भक :- शय्या आदि की रक्षा करने वाले देव। 6. पुष्प जृम्भक :- फुलों की रक्षा करने वाले देव। 7. फल जृम्भक :- फलों की रक्षा करने वाले देव। 8. पुष्पफल ज़म्भक :- फुलों और फलों की रक्षा करने वाले देव। 9. विद्या जृम्भक :- विद्याओं की रक्षा करने वाले देव। 10. अव्यक्त जृम्भक :- सामान्य रुप में सब पदार्थों की रक्षा करनेवाले देव 3. ज्योतिषी देव - इनके पाँच भेद है - 1. चन्द्र 2. सूर्य 3. ग्रह 4. नक्षत्र और 5. तारा। इनके विमान सदा ज्योतिमान (प्रकाशमान) रहने से इनको ज्योतिषी कहते हैं। मेरू पर्वत से 790 योजन ऊपर और 900 योजन तक के आकाश (अंतरिक्ष) में ये देव मेरु पर्वत के चारों तरफ परिभ्रमण करते रहते हैं। अढ़ाई द्वीप में ये देव मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते रहते हैं। इसलिए चर कहलाते हैं। इनके भ्रमण के कारण ही दिन-रात, घड़ी, मुहूर्त, मास, वर्ष आदि होते हैं। अढ़ाई द्वीप के बाहर क्षेत्र में ये सदा स्थिर रहते हैं। इसलिए जहाँ दिन है, वहाँ सदा दिन ही रहता है। जहाँ रात है, वहाँ सदा रात रहती है। इस प्रकार पाँच ज्योतिषी देवों के अस्थिर तथा स्थिर यह 10 भेद हो जाते हैं। 4. वैमानिक देव - ऊर्ध्वलोक में जो देव विमानों में निवास करते हैं वे वैमानिक देव कहलाते हैं। उनके भेद इस प्रकार है। 1. बारह कल्पोपन्न देव (जहाँ कल्प, आचार मर्यादा हो) 2. कल्पातीत देव(जहां कल्प का व्यवहार न हो) - यह भी दो प्रकार के होते हैं (क) नव ग्रैवेयक देव (ख) पाँच अनुत्तर विमान 3. तीन किल्विषिक देव 4. नव लोकांतिक देव।। सौधर्मकल्प आदि 12 कल्प विमान, उनके ऊपर नौ ग्रैवेयक विमान तथा उनसे ऊपर पाँच अनुत्तर विमान है। पंचम देवलोक के पास त्रसनाड के किनारे पर जो 9 प्रकार के लोकांतिक देव रहते हैं। तीर्थंकर भगवान जब दीक्षा लेने का विचार करते है तब ये देव आकर उनको विनंती करते हैं। प्रथम, ततीय तथा छटे देव लोक के नीचे तीन प्रकार के किल्विषिक (सफाई करने वाले) देव रहते हैं। इस प्रकार 12+9+5+9+3=कुल 38 भेद वैमानिक देवों के है। चारों जाति के कुल 99 भेद होते हैं। देवों की उत्पत्ति स्थान को उपपात सभा कहते हैं। यहाँ पर फूलों जैसी कोमल शय्या पर देवों की उत्पत्ति होती है। उत्पत्ति के समय प्रत्येक देव अपर्याप्त अवस्था में होता है। उत्पत्ति के 48 मिनट (अन्तर्मुहर्त्त) के भीतर वे आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास तथा भाषा - मनःपर्याप्ति पूर्ण कर लेते हैं। तब उनकी पर्याप्ति अवस्था कहलाती है। इस प्रकार 99 अपर्याप्त तथा 99 पर्याप्त कुल 198 भेद देवों के होते हैं। चार गति के संसारी जीवों के भेद 563 नरक के 14 भेद । तिर्यंच के 48 भेद मनुष्य के 303 भेद देव के 198 भेद | कुल - 563 भेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002764
Book TitleJain Dharma Darshan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2010
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy