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दृष्टि से उसका स्वरुप तीनों कालों में एक-सा रहता है इसीलिए वह नित्य है और पर्याय की दृष्टि से वह भिन्नभिन्न रूपों में परिणत होता रहता हैं अतः अनित्य है।
• संसारी जीव - दूध और पानी, तिल और तेल, कुसुम और गंध जिस प्रकार जीव- शरीर एक प्रतीत होते हैं पर पिंजडे से पक्षी, म्यान से तलवार, घड़े से शक्कर अलग है वैसे ही जीव शरीर से अलग है। शरीर के अनुसार जीव का संकोच और विस्तार होता है। जो जीव हाथी के विराटकाय शरीर में होता है वही जीव चींटी के नन्हें शरीर में उत्पन्न हो सकता है। संकोच और विस्तार दोनों ही अवस्थाओं में उसकी प्रदेश संख्या न्यूनाधिक नहीं होती, समान ही रहती है।
जैसे काल अनादि है, अविनाशी है। वैसे जीव भी अनादि है, अविनाशी है।
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जैसे पृथ्वी सभी वस्तुओं का आधार है, वैसे जीव ज्ञान, दर्शन आदि का आधार है।
• जैसे आकाश तीनों कालों में अक्षय, अनंत और अतुल है वैसे ही जीव तीनों कालों में अक्षय, अनंत और अतुल है।
• जीव अमूर्त है, तथापि अपने द्वारा संचित मूर्त शरीर के योग से जब तक शरीर का अस्तित्व रहता है, तब तक मूर्त जैसा बन जाता है।
• लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ पर सूक्ष्म या स्थूल शरीर जीवों का अस्तित्व न हो ।
जिस प्रकार सोने और मिट्टी का संयोग अनादि है वैसे ही जीव और कर्म का संयोग भी अनादि है। अग्नि से तपाकर सोना मिट्टी से पृथक किया जाता है वैसे ही जीव भी संवर तपस्या आदि द्वारा कर्मों से पृथक हो जाता है।
जीव के लक्षण :
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पुस्तक पढ़ना
चेतना या उपयोग लक्षण वालों को जीव कहा जाता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग जीवों के लक्षण है।
4. जय
1. ज्ञान
प्रायश्चित
श्रुत अध्ययन
संघना
3. शनि
8. प्यारिन
G. उपयोग
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50
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आगमों में कहा गया है "उवओग लक्खणे जीवे" भगवती शतक 2, उद्दे. 10 "जीवो उवओग लक्खणो"
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उत्तरा अ. 28, गाथा 16 “उपयोगो लक्षणम्”
तत्त्वार्थ अ. 2, सू. 8
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जीव का लक्षण उपयोग है। जीव की चेतना परिणति को उपयोग कहते है। उपयोग का अर्थ है ज्ञान और दर्शन, ज्ञान का अर्थ है जानने की शक्ति । दर्शन का अर्थ है,
देखने की शक्ति। ऐसे तो उपयोग के भेद करते हुए आगमों में साकारोपयोग (ज्ञान) और निराकारोपयोग (दर्शन) दो प्रकार बताये है। इसलिए जिसमें ज्ञान और दर्शन रूप उपयोग पाया जाता है वह जीव है।
जीव को चेतन चैतन्य इसलिए कहते हैं कि उसमें सुख दुःख और अनुकूलता प्रतिकूलता आदि की अनुभूति करने की क्षमता है। उसमें ज्ञान होने से वह अपने हिताहित का बोध कर सकता है। पाँच इन्द्रिय, मन, वचन, काया के योग, आयु और श्वासोच्छ्वास रूप दस प्राणों का धारक होने से जीव को प्राणी भी कहते हैं।