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महासाधना के लिये भगवान का विहार तथा उपसर्ग
साधना के पथ में केवल गुलाब ही बिछाये हुए नहीं होते, कांटे भी होते हैं। साधक इन कांटों को दूर करके अथवा समभाव-पूर्वक सहन करके आगे बढ़ता है, और कर्मक्षय करता हुआ सिद्धि के सोपान पर चढ़ता हुआ इष्ट सिद्धि के शिखर पर पहंच जाता है। तीर्थंकरों का अन्तिम लक्ष्य निर्वाण-प्राप्ति होता है, इसलिये वे सर्वोच्च अवस्था तथा सर्वज्ञपद की प्राप्ति अनिवार्य रूप से करते हैं। इसकी प्राप्ति के लिये उग्र तप और संयमधर्म की आराधना-द्वारा अवरोधक कर्मों का क्षय करना पड़ता है। भगवान ने शीघ्र साधना प्रारंभ कर दी।
एकाकी. वस्त्रविहीनशरीरी. निद्रात्यागी, मौनी, प्रायः (अन्न-जलरहित) उपवासी, सब प्राणियों के प्रति मैत्री, करुणा-दयाभाव रखते हए, सभी के आत्म-कल्याण की भावना से पूर्ण, कर्मक्षय के लिये विविध परीषहों को स्वेच्छा से सहन करते हुए, प्रायः खड़े-खड़े ध्यानावस्था में समय-यापन कर, आत्मविशुद्धिपूर्वक आत्मा का उर्वीकरण करते हुए सफलता के सोपान पर चढ़ने लगे। इस समय से साधना के साढ़े 12 वर्षों के बीच देव, मनुष्य और तिर्यंचों द्वारा अनुकूल अथवा प्रतिकूल जो कुछ उपसर्ग हुए उन से संबंधित चित्रों का यहां से प्रारंभ होता है। _ विहार में दीक्षा लेने से पूर्व शरीर पर लगाये गये सुगन्धित द्रव्यों की सुगन्ध से आकृष्ट होकर युवकगण मौनी भगवान के पास सुगन्ध से तथा मनोहर रूप से आकृष्ट होकर युवतियां प्रेम की याचना कर रही हैं। ग्वाले का प्रतिकूल उपसर्ग और इन्द्र द्वारा अवरोध
कुमारग्राम में भगवान ध्यान में लीन थे, तभी कुछ ग्वाले वहां आये और अपने बैलों को उन्हें संभलाकर गांव में चले गये। थोड़ी देर बाद पुनः लौटकर आये तो देखा उनके बैल वहां नहीं है। पूछा-बाबा! हमारे बैले यहां चर रहे थे। हम आपको संभलाकर गये थे, वे कहां हैं? भगवान मौन रहे। ग्वाले बैलों को ढूंढने के लिए चल पड़े। सारी रात ढूंढते रहे पर बैल नहीं मिले। संयोगवश वे बैल रात्रि में श्रमण महावीर के पास आकर बैठ गए थे। ग्लालों ने जब प्रातः वहां पर बैलो को बैठे देखा तो क्रुद्ध हो उठे और उन पर कोड़े बरसाने लगे, तभी इन्द्र ने अवधिज्ञान से देखा और वहां आकर मूर्ख ग्वालों को समझाया - जिन्हें तुम मार रहे हो, वे हमारे तीर्थंकर भगवान हैं। भगवान से इन्द्र ने प्रार्थना की आपकी उम्र बहुत बाकी है, अतः उपसर्ग आयेंगे। आप मुझे अपनी सेवा में रहने की आज्ञा दें। भगवान महावीर ने कहा - "न भूतं न भविष्यति" ऐसा न कभी हुआ है
और न होगा। अर्हत कभी दसरों के बल पर साधना नहीं करते। वे अपने सामर्थ्य से ही कर्मों का क्षय करते हैं। अतः मुझे किसी की सहायता नहीं
चाहिए। शलपाणि यक्षका उपसर्ग एवं भगवान महावीर के दस स्वप्न श्रमण भगवान महावीर की साधना का प्रथम वर्ष चल रहा था। मोराक सन्निवेश में पन्द्रह दिन रहकर आप अस्थिक ग्राम में गए। वहां पर एक व्यंतर गृह में शूलपाणि यक्ष रहता था। जो कोई रात्रि में वहां प्रवास करता,
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