SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ x काल-चक्र जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि (Nature)अनादिकाल से गतिशील है। इसकी न ही आदि है और न ही अंत। द्रव्य की अपेक्षा से यह नित्य और ध्रुव है, पर पर्याय की अपेक्षा से यह प्रतिक्षण परिवर्तनशील है। परिणमन प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है। सृष्टि में भी नित नये परिवर्तन होते रहते हैं। इन परिवर्तनों को लेकर ही यह सृष्टि चल रही है। इसका न कभी सर्वथा विनाश(Destruction) होता है और न कभी उत्पाद(Origination) होता है। सदा आंशिक विनाश होता रहता है और उस विनाश में से ही आंशिक उत्पाद होता रहता है। सृष्टि इस विनाश ओर उत्पाद के चक्र में अपने मूल तत्त्वों को संजोकर ज्यों का त्यों रखे हुए है। परिणमन का यह क्रम अनादिकाल से चल रहा है। काल का चक्र भी इस प्रकार अनादि काल से घूम रहा है। इस कालचक्र में भी न आदि है न अंत। निरंतर घूमते रहने वाले कालचक्र में आदि और अंत संभव भी नहीं हो सकते। अतः कालचक्र भी अविभाज्य और अखंड है। किंतु व्यवहार की सुविधा के लिए हम काल के विभाग कर लेते हैं। जैन दर्शन में काल को एक चक्र की उपमा दी गई है। जैसे चक्र में 12 आरे (लकड़ी के डंडे) होते हैं, वैसे ही कालचक्र के भी 12 आरे माने गये र इन्हें दो भागों में विभक्त किया गया है जो कि अवसर्पिणी काल और उत्सर्पिणी काल के नाम से जाने जाते हैं। ___ गाड़ी का 'चक्र' (पहिया) कभी ऊपर और कभी नीचे घूमता रहता है। इसी प्रकार कालचक्र भी कभी विकास की तरफ ऊपर उठता है तो कभी हृास की ओर नीचे जाता है। नीचे-ऊपर के इस क्रम से काल को दो भागों में बांटा गया है - 1. अवसर्पिणी काल और 2. उत्सर्पिणी काल। अवसर्पिणी काल - जिस काल में जीवों की शक्ति, अवगाहना, आयु तथा प्राकृतिक संपदा एवं पर्यावरण की सुन्दरता क्रमशः घटती जाती है, वह अवसर्पिणी काल कहलाता है और जिस काल में शक्ति, अवगाहना और आयु तथा धरती की सरसता आदि में क्रमशः वृद्धि होती जाती है, वह उत्सर्पिणी काल कहलाता है। ___ अवसर्पिणी काल समाप्त होने पर उत्सर्पिणी काल आता है और उत्सर्पिणी काल समाप्त होने पर अवसर्पिणी काल। अनादिकाल से यह क्रम चला आ रहा है और अनंतकाल तक यही क्रम चलता रहेगा। __ उत्सर्पिणी काल 10 कोडा-कोडी सागरोपम का है, अवसर्पिणी काल भी इतना ही है। दोनों मिलाकर 20 कोडा-कोडी सागरोपम का एक काल चक्र होता है। ___कल्पना कीजिये कि एक योजन(लगभग 12 कि.मी.) लंबा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा कुंआ हो, उसमें देवकुरु, उत्तरकुरु मनुष्यों के बालों के असंख्य खंड तल से लगाकर उपर तक लूंस-ठूस कर इस प्रकार भरे जायें कि उसके ऊपर से चक्रवर्ती की सेना निकल जाय तो भी वह दबे नहीं। नदी का प्रवाह उस पर से गुजर जाय परंतु एक बूंद पानी अंदर न भर सके। अग्नि का प्रवेश भी न हो। उस कुएं में से सौ-सौ वर्ष बाद एक-एक बाल खंड निकाले इस प्रकार करने से जितने समय में वह कुंआ खाली हो जाए, उतने समय को एक पल्योपम कहते हैं। ऐसे दस कोडा कोडी पल्योपम का एक सागरोपम होता है। बीस कोडा कोडी सागरोपम का एक कालचक्र होता है। AARAK-13aas G alemonstrarmstrol mujaftenbrary.organw
SR No.002764
Book TitleJain Dharma Darshan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2010
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy