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________________ 18 प्रवृत्तिगुण 18 निवृत्तिगुण 5 इन्द्रिय विषय 9 प्रकार की ब्रह्मचर्य वाड 4 कषाय 5 महाव्रत 5 आचार 5 समिति 3 गुप्ति स्थापनाचार्यजी की तेरह बोल की पडिलेहणा (शुद्ध स्वरुप) 1. शुद्ध स्वरूप धारें 2. ज्ञान 3. दर्शन 4. चरित्र 5. सहित सद्धहणा-शुद्धि 6. प्ररूपणा-शुद्धि 7. स्पर्शना-शुद्धि 8. सहित पांच आचार पालें 9. पलावें 10. अनुमोदें 11. मनो-गुप्ति 12. वचन-गुप्ति 13. काया-गुप्ति आदरें। 3.खमासमण सूत्र इच्छामि खमासमणों ! वंदिउं, जावणिज्जाए निसीहिआए मत्थएण वदामि । शब्दार्थ इच्छामि - मैं चाहताहूं। खमासमणों - हे! क्षमाश्रमण-क्षमाशील तपस्विन् गुरु महाराज वंदिउं - वन्दन करने के लिए। जावणिज्जाए - शक्ति के अनुसार अथवा सुखसाता पूछकर। निसीहिआए - सब पाप कार्यों का निषेध करके अथवा अन्य सब कार्यों को छोड़कर, अथवा अविनय आशातना की क्षमा मांगकर। मत्थएण - मस्तक से, मस्तक झुकाकर । वंदामि - मैं वंदन करता हूं। भावार्थ : हे क्षमाशील तपस्विन् गुरु महाराज! आपका मैं सुखसाता पूछकर अपनी शक्ति के अनुसार अन्य सब कार्यों का निषेध करके, सब पाप-कार्यों से निवृत्त होकर तथा अविनय आशातना की क्षमा मांगकर वंदन करना चाहता हं, और उसके अनुसरा मस्तक (आदि पांचो अंग) झुका (और मिला) कर मैं वंदन करता हूं। 4. सुगुरु को सुखशांति-पृच्छा __ इच्छकार | सुह-राई ? (सुह देवसि?) सुख-तप शरीर-निराबाध ? सुख-संयम-यात्रा निर्वहते हो जी। स्वामिन् साता है जी? आहार पानी का लोभ देना जी। शब्दार्थ इच्छकार - हे गुरु महाराज! आपकी इच्छा इच्छा हो तो मैं पूछू। सुह-राई - आप की रात सुखपूर्वक बीती होगी? (सुह-देवसि) - आप का दिन सुखपूर्वक बीता होगा? सुख तप - आपकी तपश्चर्या सुखपूर्वक पूर्ण हुई होगी? 1. यहां गुरु उत्तर देवे कि देव गुरु पसाय। 2. वर्तमान योग । शरीर-निराबाध- आपका शरीर बाधा पीड़ा रहित होगा। सुख-संयम-यात्रा निर्वहते हो जी? आप चारित्र का पालन सुखपूर्वक कर रहे होंगे 80868 97 For Private & Personal Use Only Jain Elucation International www.jainelibrary.org
SR No.002764
Book TitleJain Dharma Darshan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2010
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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