________________
लग्न कुंडली देखते हैं और फलादेश बतलाने लगते हैं। उनका यह फलादेश सतही और स्थूल भी हो सकता है (और अक्सर होता भी है) क्योंकि किसी कुंडली का संपूर्ण अध्ययन समय की मांग करता है। जैसे ग्रहों के अंश क्या हैं? वे अस्त हैं अथवा उच्च या निर्बल स्थिति में हैं। वे मित्रगृह में हैं या शत्रु गृह में। उन पर किन-किन ग्रहों की दृष्टि पड़ रही है। वे किन नक्षत्रों में, नक्षत्रों के किन चरणों में हैं। उन नक्षत्रों से उनके कैसे संबंध हैं। प्रश्नकर्ता वर्तमान में किस ग्रह की महादशा में, किसकी अंतर-प्रत्यंतर दशा से गुजर रहा है, आदि।
नक्षत्रों का महत्त्व प्राचीनकाल से ही रहा है। पाश्चात्य विद्वान यूनानियों, रोमनों, बेबीलोनिया निवासियों एवं मिस्रियों को उनकी खोज एवं नामकरण का श्रेय देता है। अपनी पठनीय कृति 'भारतीय ज्योतिष में स्वर्गीय डॉ. नेमिचंद शास्त्री ज्योतिषाचार्य ने भारतीय ज्योतिष में काल वर्गीकरण पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए ईसापूर्व 10001 में ई.पू. 500 तक को उदयकाल से संबोधित किया है तथा प्रभावित किया है कि "उदयकाल में भारतीयों को नक्षत्रों का पूर्ण ज्ञान था। उन्होंने अपने पर्यवेक्षण द्वारा मालूम कर लिया था कि संपात बिंदु भरणी का चतुर्थ चरण है, अतएव कृतिका से नक्षत्र गणना की जाती थी। ऋगवेद में हमें वर्तमान प्रणाली के अनुसार नक्षत्र-चर्चा मिलती हैं: अभी य ऋथा विहितास उध्रां नकुन्दहश्रे-कुद्रच्छिवेपुः अद्धब्धानि वहणस्य वतानि विचाक सश्चंद्रमा नक्तमेति
इस मंत्र में रात्रि में नक्षत्र प्रकाश एवं दिन में नक्षत्र-प्रकाश भाव का निरूपण किया गया है।
ऋग्वेद सूर्य को भी एक नक्षत्र मानता हैअग्ने नक्षत्रमचरमा सूर्य रोहियो दिवि
वेद के अनुसार, सूर्य भी नक्षत्र है, जो कभी जीर्ण नहीं होता तथा धुलोक में आरोहमान है। अथर्ववेद में सूर्य को सभी नक्षत्रों का अधिपति माना गया है
दिवे चक्षुणे नक्षत्रेभ्य सूर्यायाऽधिपतये स्वाहा
वेद में विष्णु को नक्षत्र रूप कहा गया है। गो का एक अर्थ नक्षत्र भी है और नक्षत्र मंडल में विचरने वाले प्रकाश पिंड गोचर अथवा ग्रह हैं।
भारतीय ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन हमें चमत्कृत कर देता है कि आज से सहस्रों वर्षों पूर्व जब आज जैसे वैज्ञानिक उपकरण नहीं थे, तब हमारे प्राचीन ऋषियों-मनीषियों ने किस तरह प्रकाश में उपस्थित असंख्य तारों
ज्योतिष-कौमुदी : (खंड-1) नक्षत्र-विचार - 7
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org