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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
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बतलाता है कि ये भद्रबाहु प्रतिष्ठानपुर के ज्योतिषी वराहमिहिर के भाई दूसरे भद्रबाहु ही थे, क्योंकि श्रुतकेवली भद्रबाहु के दक्षिण देश में विहार करने का कोई प्रमाण नहीं है । इससे उलटा दुर्भिक्ष के अंत में भद्रबाहु का नेपाल श्वेतांबर ग्रंथकार जिन भद्रबाहु को वराहमिहिर का भाई लिखते हैं वे ये ही द्वितीय भद्रबाहु हो सकते हैं।
५५. श्वेतांबर जैन ग्रंथों में भद्रबाहु को ज्योतिषी वराहमिहिर का भाई लिखा है। देखो नीचे लिखा हुआ उल्लेख
"प्रतिष्ठानपुरे वराहमिहिरभद्रबाहुद्विजौ बांधवौ प्रव्रजितौ । भद्रबाहोराचार्यपददाने रुष्टः सन् वराहो द्विजवेषमादृत्य वाराहीसंहितां कृत्वा निमित्तैर्जीवति ।"
-कल्पकिरणावली १६३ । परंतु इन्हीं भद्रबाहु को श्वेतांबर लेखक श्रुतकेवली कहते हैं । यह ठीक नहीं है, क्योंकि ज्योतिषी वराहमिहिर शक संवत् ४२७ में विद्यमान था ऐसा पंचसिद्धांतिका की निम्नलिखित आर्या से निश्चित है
"सप्ताश्विवेदसंख्यं, शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ । अर्धास्तमिते भानौ, यवनपुरे सौम्यदिवसाये ॥८॥"
- पञ्चसिद्धान्तिका । जब वराहमिहिर का अस्तित्व शक संवत् ४२७ (निर्वाण १०३२) में निश्चित है तब उसके भाई भद्रबाहु श्रुतकेवली नहीं हो सकते । वस्तुतः श्रुतकेवली-भद्रबाहु और वराहमिहिर के भाई ज्योतिषी- भद्रबाहु भिन्न व्यक्ति थे । दिगंबराचार्यों ने इन दोनों को भिन्न ही माना है, परन्तु ज्योतिषी भद्रबाहु को वे विक्रम की पहली शताब्दी में हुआ मानते हैं । यह गलती है । हमारे विचार में वराहमिहिर का जो समय है वही इन भद्रबाहु का भी अस्तित्व-समय होना चाहिए । जैसे दिगंबर जैन ग्रंथों में द्वितीय भद्रबाहु को 'चरमनिमित्तधर' लिखा है, वैसे ही श्वेतांबर जैन ग्रंथों में भी भद्रबाहु को 'निमित्तवेत्ता और भद्रबाहु संहिता नामक ग्रंथ का प्रणेता' लिखा है, पर इन प्रतिष्ठाननिवासी वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु को श्रुतकेवली भद्रबाहु से भिन्न नहीं माना - यह एक चिरकालीन भूल कही जा सकती है । संभवत: वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु छठीं सदी के विद्वान् होंगे । इसी समय के लगभग हरिगुप्त नामक किसी गुप्तराजवंश्य व्यक्ति ने जैसे श्वेतांबर संप्रदाय में दीक्षा ली थी वैसे ही चंद्रगुप्त नामक राजवंशी पुरुष ने भी इन भद्रबाहु के पास दीक्षा अंगीकार की होगी और नवदीक्षित चंद्रगुप्त को लेकर उक्त आचार्य दक्षिणापथ की तरफ गए होंगे ।
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