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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
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इस घटना का समय भी विक्रम की पहली या दूसरी शताब्दी के आसपास लिखा है५४ ।।
अभादुज्जयिनी नाम्ना, पुरी प्राकारवेष्टिता । श्रीजिनागारसागार-मुनिसद्धर्ममंडिता ॥६॥ चंद्रावदातसत्कीर्तिश्चंद्रवन्मोदकर्तृ(कृन्न)णाम् । चंद्रगुप्ति पस्तत्राऽचकच्चारुगुणोदयः ॥७॥
- भट्टारक रत्ननंदि कृत भद्रबाहुचरित्र २ परिच्छेद । ५४. दिगंबराचार्यों के लेखों के आधार पर द्वितीय भद्रबाहु का सत्ता-समय विक्रम की दूसरी सदी के आसपास प्रमाणित होता है 'अंगपन्नत्ति' के कर्ता भट्टारक शुभचंद्र इन द्वितीय भद्रबाहु को प्रथमांगधर (आचारांगवेत्ता) लिखते हैं । देखो पन्नत्ति की यह गाथा
"अग्गिम अंगि सुभद्दो, जसभद्दो भद्दबाहुपरमगणी । आयरियपरंपराइ, एवं सुदणाणमावहदि ॥४७॥"
-अंगपन्नत्ति । परंतु ब्रह्म हेमचंद्र ने अपने श्रुतस्कंध में अंगश्रुत की परंपरा विच्छिन्न होने के बाद में द्वितीय भद्रबाहु की सत्ता का निर्देश किया है । जिन-निर्वाण पीछे केवली वर्ष ६२, श्रुतकेवली वर्ष १००, दश पूर्वधर वर्ष १८३, एकादशांगधर वर्ष २२०, एकांगधर और अंगदेशधर वर्ष ११८ तक रहे । इस प्रकार अंगश्रुत की प्रवृत्ति निर्वाण से ६८३ वर्ष पर्यंत रहकर विच्छिन्न हुई । यह ६८३ वर्ष का इतिहास लिखने के बाद हेमचंद्र द्वितीय भद्रबाहु के संबंध में 'श्रुतस्कंध' में नीचे मुजब उल्लेख करते हैं
"आयरिओ भद्दबाहू, अटुंगमहणिमित्तजाणयरो । णिण्णासइ कालवसे, स चरिमो हु णिमित्तिओ होदी ॥८०॥"
-अब शुभचंद्र के कथनानुसार यदि भद्रबाहु को प्रथमांगधर मान लिया जाय तब तो उनका अस्तित्व विक्रम की प्रथम शताब्दी में मानना ही संगत हो सकता है, परंतु ब्रह्म हेमचंद्र आदि का कथन ठीक मानकर यदि भद्रबाहु का समय अंगज्ञान के विच्छेद होने के बाद का मान लें तो इसका अर्थ यही होगा कि वीरनिर्वाण ६८३ (विक्रम २१३) के बाद ये नैमित्तिक भद्रबाहु हुए, परंतु दिगंबर विद्वानों के लेखों से पाया जाता है कि द्वितीय भद्रबाहु-जिनसे सरस्वती गच्छ की नंदि आम्नाय की पट्टावली प्रारंभ होती हैईसवी सन् से ५३ वर्ष और शक संवत् से १३१ वर्ष पूर्व हुए । पट्टावली में इनके शिष्य का नाम गुप्तिगुप्त लिखा है । डा० फ्लीट का मत है कि दक्षिण की यात्रा करनेवाले ये ही द्वितीय भद्रबाहु थे और 'चंद्रगुप्त' उनके शिष्य गुप्तिगुप्त का ही नामांतर है । हमारे
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