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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
इसी कथाकोष में चंद्रगुप्त का भद्रबाहु के पास दीक्षा लेकर विशाखाचार्य के नाम से प्रसिद्ध होना और गुरु के आज्ञानुसार संघ को लेकर दक्षिण के पुन्नाट देश में जाना लिखा है साथ ही मिल्ल, स्थूलवृद्ध और भद्राचार्य को अपने अपने संघों सहित सिंधु आदि देशों में भेजने का वर्णन है । और इसके बाद भद्रबाहु के अवन्ती के भाद्रपाद नामक स्थान पर समाधिमरण करने का उल्लेख किया गया है ।
" प्राप्य भाद्रपदं देशं श्रीमदुज्जयुनीभवम् । चकाराऽनशनं धीरः स दिनानि बहून्यलम् ॥ समाधिमरणं प्राप्य भद्रबाहुर्दिवं ययौ ॥"
भट्टारक रत्ननंदि-निर्मित भद्रबाहुचरित्र में, जो अनुमानतः विक्रम की पंद्रहवीं या सोलहवीं सदी का ग्रंथ है, लिखा है कि 'निमित्त ज्ञान से भावी द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष को जानकर भद्रबाहु अपने बारह हजार संघ के साथ दक्षिण देश में चले गए, पर रामल्य, स्थूलभद्रादि बारह हजार साधु उज्जैनी के श्रावक संघ के आग्रह से दुर्भिक्ष के समय वहीं ठहर गए । दुर्भिक्ष के अंत में दक्षिण देश से भद्रबाहु के पट्टधर विशाखाचार्य कान्यकुब्ज के उद्यान में आए, तब रामल्य स्थूलभद्रादि ने अपने साधुओं को उनके पास भेजा । साधुओं ने उनकी भक्तिपूर्वक वंदना की, पर विशाखाचार्य ने उनको वस्त्रधारी देखकर प्रति-वंदना नहीं की । साधु लज्जित हो अपने स्थान पर गए । रामल्य, स्थूलभद्र और स्थूलाचार्य इकट्ठे होकर विचार करने लगे कि अब क्या करना चाहिए । वृद्ध स्थूलाचार्य ने कहा- "दुर्भिक्ष के वश जो आचार में शिथिलता आ गई है उसे अब छोड़ देना चाहिए और मूल मार्ग को स्वीकार कर लेना चाहिए ।" इस पर कितनेक भव्यात्माओं ने तो मूल मार्ग स्वीकार कर लिया पर कितनेक युवा साधुओं को वृद्ध की यह सलाह अच्छी नहीं लगी, और वे कहने लगे कि इस पंचम काल में अब चौथे काल की दुष्कर क्रिया नहीं पाली जा सकती । इसलिये जो मार्ग स्वीकार किया है वही योग्य है । स्थूलाचार्य के ज्यादा कहने पर वे उन स्थविर पर एकदम क्रुद्ध हुए और दंडों से मारकर उन्होंने स्थूलाचार्य को फेंक दिया ।
शक सं० १७५१ में बने हुए देवचंद्र के राजावली कथा नामक कन्नड़ ग्रंथ में भी भद्रबाहु और चंद्रगुप्त की कथा है, जो कि उपर्युक्त भद्रबाहुचरित्र के समान ही है । हाँ, इसमें कुछ कुछ नए संस्कार भी हैं, जैसे- भद्रबाहुचरित्र में उज्जैनी के राजा चंद्रगुप्त को सोलह स्वप्न होते हैं, पर राजावली कथा के लेखक ने वे ही सोलह स्वप्न पाटलिपुत्र के राजा चंद्रगुप्त को दिखाए हैं । इन एक दूसरे से भिन्न कथानकों को देखते हुए हमें यही कहना पड़ता है कि भद्रबाहु की प्रमुखता में दक्षिण में जाने के बाद स्थानिक श्रमण संघ के वस्त्र धारण कर लेने से दोनों पार्टियों के भिन्न हो जाने की जो
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