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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
नामक तीर्थ में अनशन करके शरीर छोड़ चुके थे। उसी दुष्काल के प्रभाव से तीर्थंकरों के गणधरों द्वारा प्ररूपित बहुतेरे सिद्धांत भी नष्टप्राय हो गए थे, यह जानकर भिक्खुराय ने जैन-सिद्धांतों का संग्रह और जैन धर्म का विस्तार करने के लिये संप्रति राजा की नाईं श्रमण निग्रंथ तथा निग्रंथियों की एक सभा वहाँ कुमारी पर्वत नामक तीर्थ पर इकट्ठी की, जिसमें आर्य महागिरिजी की परंपरा के बलिस्सह, बोधिलिंग, देवाचार्य, धर्मसेनाचार्य, नक्षत्राचार्य, आदिक दो सौ जिनकल्प की तुलना करनेवाले जिनकल्पी साधु, तथा आर्य सुस्थित, आर्य सुप्रतिबुद्ध, उमास्वाति, श्यामाचार्य प्रभृति तीन सौ स्थविरकल्पी निग्रंथ आए । आर्या पोइणी आदिक तीन सौ निग्रंथी साध्वियाँ भी वहाँ इकट्ठी हुई थीं । भिक्खुराय, सीवंद, चूर्णक, सेलक आदि सतत सौ श्रमणोपासक और भिक्खुराय, की स्त्री पूर्णमित्रा आदि सात सौ श्राविकाएँ, भी उस सभा में उपस्थित थीं।
पुत्र, पौत्र और रानियों के परिवार से सुशोभित भिक्खुराय ने सब निग्रंथों और निग्रंथियों को नमस्कार करके कहा- "हे महानुभावो ! अब आप वर्धमान तीर्थंकर प्ररूपित जैन धर्म की उन्नति और विस्तार करने के लिये सर्व शक्ति से उद्यमवंत हो जायँ" ।.
भिक्खुराय के उपर्युक्त प्रस्ताव पर सर्व निग्रंथ और निग्रंथियों ने अपनी सम्मति प्रकट की और भिक्खुराय से पूजित सत्कृत और सम्मानित निग्रंथ और निग्रंथियाँ मगध, मथुरा, वंग आदि देशों में तीर्थंकर-प्रणीत धर्म की उन्नति के लिये निकल पड़े । ...
उसके बाद भिक्खुराय ने कुमारगिरि और कुमारीगिरि नामक पर्वतों पर जिन प्रतिमाओं से शोभित अनेक गुफाएँ खुदवाईं, वहाँ जिनकल्प की तुलना करनेवाले निग्रंथ वर्षाकाल में कुमारी पर्वत की गुफाओं में रहते
और जो स्थविरकल्पी निग्रंथ होते वे कुमार पर्वत की गुफाओं में वर्षाकाल में रहते । इस प्रकार भिक्खुराय ने निग्रंथों के लिये विभिन्न व्यवस्था कर दी थी ।
उपर्युक्त सर्व व्यवस्था से कृतार्थ हुए भिक्खुराय ने बलिस्सह,
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