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________________ जैन काल-गणना-विषयक एक तीसरी प्राचीन परंपरा [पूर्व-प्रकाशित लेख का परिशिष्ट] काल-गणना संबंधी दो प्राचीन परंपराओं का वर्णन हमने मूल लेख में कर दिया है और उनके विवेचन में उपलब्ध सामग्री का यथेच्छ उपयोग भी कर दिया है, पर मेटर प्रेस में भेजने के बाद हमें इस विषय की एक नई परंपरा उपलब्ध हुई है जिसका संक्षिप्त परिचय इस लेख में दिया जाता है। कुछ दिन पहले मुझे मालूम हुआ कि कच्छ देश के किसी पुस्तकभंडार में आचार्य हिमवत्-कृत "थेरावली' विद्यमान है । मैंने इस प्राकृत भाषामयी मूल थेरावली की प्राप्ति के लिये उद्योग किया और कर रहा हूँ, पर अब तक मूल पुस्तक मेरे हस्तगत नहीं हुई, केवल उसका जामनगर-निवासी पं० हीरालाल हंसराजकृत गुजराती भाषांतर प्राप्त हुआ है, प्रस्तुत लेख उसी भाषांतर के आधार पर लिखा जा रहा है । आचार्य हिमवान् एक प्रसिद्ध स्थविर थे । प्रसिद्ध अनुयोगप्रवर्तक स्कंदिलाचार्य और नागार्जुन वाचक का सत्ता-समय ही इन हिमवान् का सत्ता-समय था इसमें कोई संदेह नहीं है, क्योंकि देवद्धिगणि की नंदी-थेरावली में इनका स्कंदिल के बाद और नागार्जुन के पहले उल्लेख है और प्रस्तुत थेरावली में इनको स्कंदिल का शिष्य लिखा है । पर यह निश्चय होना कठिन है कि यह थेरावली प्रस्तुत हिमवत्-कृत है या अन्य कर्तृक। इसमें कई प्राचीन और अश्रुतपूर्व बातें ऐसी हैं जिनका प्राचीन शिलालेखों से भी समर्थन होता है, और इन बातों का प्रतिपादन इसमें देखकर इसे प्राचीन १ राजा खारवेल का वंश-इसके बाप दादों के नाम, इसके पुत्र वक्रराय और पौत्र विदुहराय के नाम इत्यादि अनेक बातों का पता शिलालेखों से मिलता है, इसकी चर्चा उन स्थलों के टिप्पणों में यथास्थान की जापगी। वीर-११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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