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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
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और 'मट्ठि' के "म्" और "इ' को गलत समझकर उन्हें ठीक करके "मुरियाणं अट्ठसयं" पाठ बना लिया, पर इसमें भी वैकल्पिक संधि से "मुरियाणमट्ठसय" होकर कहीं मात्रा न घट जाय इस चिंता से पिछले लेखकों ने इसकी काया ही पलट कर "अट्ठसयं मुरियाणं" बना लिया ।
इस प्रकार यह भूल और इसका इतिहास है । यह भूल कुछ आजकल की नहीं है, चौदहवीं सदी में तो यह भूल अपना वास्तविक स्वरूप भुलाकर शुद्ध गणना के नाम से प्रसिद्ध हो चुकी थी, जैसा कि आचार्य मेरुतुंग की विचारश्रेणी से ज्ञात होता है। संभव है, उसके भी बहुत पहले यह इसी रूप में रूढ़ हो चली हो ।
इस भूल का जैन इतिहास पर क्या असर पड़ता है, वह भी जरा देख लेने योग्य है।
प्रभावकचरित्र और इससे भी प्राचीन प्रबंधों में लिखा है कि आर्य खपट जब भरोच में विचरते थे उस समय वहाँ कालकाचार्य के भानजे बलमित्र भानुमित्र का राज्य था । प्रचलित अशुद्ध गणनानुसार बलमित्र भानुमित्र का राज्य निर्वाण संवत् ३५३ से ४१३ तक में आता है, जब खपटाचार्य का स्वर्गवास निर्वाण ४८४ में होना लिखा है,९२ अब कहिए,
रत्थासुह । ४० । १०५८-४ ।
रत्थामुह । सहसेण । ४१ । १०९७-४ ।
महसेण । सुहे । ४२ । ११४२-४ ।
मुहे । सुंचा । ४३ । ११५८-३ ।
मुंचा । सुत्तमं । ४४ ।११९७-१ ।
मुत्तमं । सुत्ती । ४५ । १२०८-२ ।
मुत्ती । सुणह । ४५ । १२२२-४ ।
मुणह । उपर्युक्त उदाहरण परंपरा तित्थोगाली की एक प्राचीन प्रति से उद्धृत की गई है। पाठक महाशय इससे यह समझ सकेंगे कि 'स' के स्थान 'म' हो जाने का हमने जो उल्लेख किया है वह कुछ भी क्लिष्ट-कल्पना नहीं है, पूर्वकाल में लेखकों की अज्ञता के कारण 'स' का 'म' हो जाना और 'म' का 'स' हो जाना साधारण बात थी, हमने ऊपर 'स' के स्थान में 'म' के लिखे जाने के जो अनेक उदाहरण दिए हैं उन्हीं की कोटि का 'सट्ठि' का 'मट्ठि' होने का भी एक उदाहरण समझ लीजिए ।
९२. देखो प्रभावकचरित्र का निम्नलिखित उल्लेख
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