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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
वालभी वाचना
जिस काल में मथुरा में आर्य स्कंदिल ने आगमोद्धार करके उनकी वाचना शुरू की उसी काल में वलभी नगरी में नागार्जुन सूरि ने भी श्रमणसंघ “सेहउग्गहणधारणादिपरिहाणि जाणिऊण कालियसुयट्ठा, कालियसुयणिज्जुत्तिनिमित्तं वा पोत्थगपणगं घेप्पति ॥"
- निशीथचूर्णि उदेशक १२ पत्र ३२१ ।
यदि पूर्वकाल में सूत्रों की पुस्तकें लिखी नहीं जाती होतीं तो निशीथ भाष्यकार वगैरह इनकी चर्चा और विधान नहीं करते ।
इससे यह मानने में तो कोई विरोध ही नहीं है कि देवर्द्धिगणि के पुस्तकलेखन के पहले भी जैनशास्त्र लिखे जाते थे, परंतु यह लेखनप्रवृत्ति कब से शुरू हुई इसका निर्णय होना मुश्किल है । जहाँ तक मेरा ख्याल है, आर्यरक्षितजी के समय से ही पूर्वश्रुत के अतिरिक्त जैन आगम ग्रंथ अल्प प्रमाण में लिखे जाने शुरू हुए होंगे । भगवान् आर्यरक्षितजी ने देश काल का विचार करके प्राचीन कालीन अनेक आचार-परंपराओं को बदला था, इसी सिलसिले में उन्होंने विद्यार्थियों की सुविधा के लिये चारों अनुयोगों को भी पृथक् पृथक् किया था । कोई आश्चर्य नहीं है, यदि उन्होंने उसी समय मंदबुद्धि साधुओं के अनुग्रहार्थ अपवाद मार्ग से आगम लिखने की भी आज्ञा दे दी हो । इनके अभिमत अनुयोगद्वार में 'पुस्तक लिखित श्रुत' शब्द का प्रयोग भी हमारे इस अनुमान का समर्थक है ।
प्रस्तुत माथुरी वाचना के समय आगम लिखे गए थे इसके तो हमें स्पष्ट उल्लेख भी मिलते हैं ।
आचार्य हेमचंद्र योगशास्त्र वृत्ति में लिखते हैं कि 'दुष्षमा कालवश जिनवचन को नष्टप्राय समझकर भगवान् नागार्जुन स्कंदिलाचार्य प्रमुख ने उसे पुस्तकों में लिखा' । देखो निम्नलिखित पंक्तियां
"जिनवचनं च दुष्षमाकालवशादुच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुनस्कंदिलाचार्यप्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् ।"
- योगशास्त्रप्रकाश ३ पत्र २०७ ।
ऊपर के विवेचन से पाठक महोदय समझ सकेंगे कि माथुरी और वाल भी वाचना के समय में स्कंदिलाचार्य और नागार्जुन वाचकों ने आगमों को पुस्तकों में लिखाया था, इसमें तो कोई शक नहीं है, पर संभवतः उसके पहले भी आगम लिखे जाते थे और कारण योग से साधु उन पुस्तकों को अपने पास भी रखते थे ।
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