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________________ १०८ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना भी नहीं मिलता, फिर भी यह वाचना कम महत्त्व की नहीं है । आचार्य मलयगिरिजी की नंदीटीका और ज्योतिषकरंडकटीका में, भद्रेश्वर की कथावली में और हेमचंद्राचार्य की योगशास्त्र वृत्ति में इस वाचना के संबंध में महत्त्वपूर्ण उल्लेख मिलते हैं, जिनका हम यथास्थान उल्लेख करके पाठकगण की जिज्ञासा पूर्ण करेंगे । आचार्य मलयगिरिजी ने नंदीथेरावली की "जेसिमिमो अणुओगो, पयरइ अज्ज वि अड्डभरहम्मि । बहुनयर निग्गयजसे, ते वंदे खंदिलायरिए ||३३|| " - इस गाथा पर टीका करते हुए लिखा है कि 'वर्तमान अनुयोग स्कंदिलाचार्य का क्यों कहलाता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि आचार्य स्कंदिल के युगप्रधानत्व समय में बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा, इस विकट दुर्भिक्ष के समय में साधुओं को भिक्षा मिलना भी असंभव हो गया जिससे न तो वे शास्त्र पढ़ सके और न पठित आगमों को याद ही रख सके । इस कारण से कितना ही अलौकिक श्रुत नष्ट हो गया, परावर्तन न होने से अंगोपांगगत भी भाव से नष्ट हो गया । बारह वर्ष के बाद जब दुर्भिक्ष मिटकर सुकाल हुआ तब मथुरा नगरी में स्कंदिलाचार्य की प्रमुखता में श्रमण संघ इकट्ठा हुआ । उस समय जिसको जो याद था वह कहता गया, इस प्रकार कालिक श्रुत और थोड़े से पूर्वश्रुत की वहाँ संघटना की गई । मथुरा में संपन्न होने के सबब से यह वाचना 'माधुरी' कही जाती है । उस समय के युगप्रधान स्कन्दिलाचार्य ने उसे प्रमाण किया और उसका अनुयोग किया इससे वह अनुयोग स्कंदिल संबंधी कहाता है । 'अन्य आचार्य इस संबंध में कहते हैं कि दुर्भिक्ष के वश कुछ भी श्रुत नष्ट नहीं हुआ पर स्कंदिलाचार्य को छोड़कर दूसरे अनुयोगधर दुष्काल के सबब से मृत्यु का ग्रास हो चुके थे, इसलिए दुर्भिक्ष के अंत मे स्कंदिलाचार्य ने मथुरा में अनुयोग किया, इस कारण से इस वाचना का नाम 'माथुरी' पड़ा और अनुयोग स्कंदिल संबंधी कहलाया ।' विद्वानों के अवलोकनार्थ हम नंदी टीका का वह पाठ कि जिसका आशय ऊपर लिख दिया है, नीचे उद्धृत करते हैं "अथायमनुयोगोर्द्ध भरते व्याप्रियमाणः कथं तेषां स्कन्दिलनाम्नामाचार्याणां संबंधी ? उच्यते- इह स्कन्दिलाचार्य्यप्रतिपत्तौ दुष्षममसुषमाप्रतिपन्थिन्याः तद्गतसकलशुभभावग्रसनैकसमारंभायाः दुष्षमायाः साहायकमाधातुं परमसुहृदिव द्वादशवार्षिकं दुर्भिक्षमुदपादि, तत्र चैवं रूपे महति दुर्भिक्षे भिक्षालाभस्याऽसम्भवादवसीदतां साधूनामपूर्वार्थग्रहणपूर्वार्थस्मरणश्रुतपरावर्तनानि मूलत एवापजग्मुः । श्रुतमपि चातिशायिप्रभूतमनेशत् । अङ्गोपाङ्गादिगतमपि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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