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________________ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना बौद्ध और पौराणिक लेखों से यह बात तो निश्चित है कि संप्रति अशोक का उत्तराधिकारी था६५ और अशोक की अंतिम बीमारी के समय में वह पाटलिपुत्र में था तथा अशोक की मृत्यु के बाद पाटलिपुत्र के राज्यसिंहासन पर उसका राज्याभिषेक हुआ था । यदि आर्य सुहस्ती के समय में संप्रति सम्राट होता ६५. पुराणों में मौर्य राजाओं के नामों में बहुत गड़बड़ है। अशोक मौर्य वंश का तीसरा राजा है, यह बात तो प्राय: सब पुराणों से निर्विवाद सिद्ध है, पर अशोक के बाद के राजाओं का क्रम और नाम दोनों ठीक नहीं मिलते । विष्णुपुराण और भागवत में अशोक के उत्तराधिकारी का नाम 'सुयशा' है, तब उसी स्थान पर वायुपुराण में 'कुनाल' और ब्रह्मांडपुराण में 'कुशाल' ये नाम उपलब्ध होते हैं । इन सुयशा, कुनाल या कुशाल के पीछे विष्णुपुराण में 'दशरथ' का नाम है तथा वायु और ब्रह्मांड में 'बंधुपालित' नाम मिलता है । भागवतकार इसी स्थान में 'संगत' यह नाम लिखते हैं, और मत्स्यपुराण में अशोक के पीछे इसके पोते 'सप्तति' (संप्रति) का राज्याधिकार लिखा है। मत्स्यपुराण का यह ‘सप्तति' ही अशोक का पोता जैनों का 'संप्रति' है । इस प्रकार मत्स्यपुराण में अशोक के पीछे उसके पोते 'संप्रति' का और उसके बाद दशरथ का राजा होना लिखा है, पर भागवत, ब्रह्मांड और वायुपुराण में 'दशरथ' का नाम ही नहीं है। वायु के कुनाल और ब्रह्माण्ड के कुशाल के बाद दोनों में 'बंधुपालित' का नाम है । विष्णुपुराण में सुयशा के पीछे दशरथ और उसके बाद 'संयुत' नाम लिखा है जो 'संप्रति' का ही विकृत रूप है । इन विकल्पों से एक बात निश्चित हो जाती है कि अशोक के पिछले मौर्य राजाओं की पुराणकारों को ठीक ठीक जानकारी नहीं थी। फिर भी मत्स्यपुराण-जो कि इस संबंध में सबसे प्रामाणिक माना गया है-अशोक के बाद उसके पोते 'संप्रति' के राजा होने और दश वर्ष तक राज्य करने का उल्लेख करता है । यह बात इस विषय के जैन इतिहास की सत्यता साबित करती है। पाठकगण के विलोकनार्थ हम मत्स्यपुराण के उस अंश को नीचे उद्धृत करते हैं "षट् त्रिंशत्तु समा राजा, भविताऽशोक एव च । सप्तति(संप्रति)र्दशवर्षाणि, तस्य नप्ता भविष्यति ॥२३।। राजा दशरथोऽष्टौ तु, तस्य पुत्रो भविष्यति ।" ___-मत्स्यपुराण अध्याय २७२ । ६६. अशोक की बीमारी के समय उसका पोता युवराज संप्रति पाटलिपुत्र में था, और अशोक के मरण के बाद उसका वहीं राज्याभिषेक हुआ था, यह बात दिव्यावदान नामक बौद्ध ग्रंथ के २९ वें अवदान में दिए हुए निम्नलिखित वृत्तांत से सिद्ध होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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