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६६ - जैन योग करुणा, अनन्त मैत्री का स्रोत उमड़ पड़ता है । कठोरता तब तक जागृत रहती है जब तक व्यक्ति को यह अनुभव नहीं होता कि दुःख हेय है । जब व्यक्ति दुःख के प्रति जागृत हो जाता है, दुःख से छुटकारा पाने के लिए तड़प उठता है तब वह इतना मृदु हो जाता है कि वह न स्वयं दुःख को आमंत्रित करता है और न दूसरों पर दुःखों को आरोपित करता है । उसमें अनन्त करुणा का भाव जाग जाता है | जब इतना होता है तब उसकी सत्यनिष्ठा प्रकट होती है । कोई भी संदेह नहीं रहता सत्यनिष्ठा में । वह इतना सत्यनिष्ठ हो जाता है कि वह सत्य के लिए ही जीता है, और किसी के लिए नहीं जीता । जो कुछ करता है वह सब सत्य के लिए करता है । श्वास लेता है तो सत्य के लिए लेता है और श्वास छोड़ता है तो सत्य के लिए छोड़ता है । अन्न खाता है तो सत्य के लिए खाता है और अन्न छोड़ता है तो सत्य के लिए छोड़ता है। प्राण धारण करता है तो सत्य के लिए करता है और प्राणों की बलि देनी होती है तो सत्य के लिए प्राण-बलि देता है। ऐसे व्यक्ति के लिए कुछ भी असंभव नहीं रहता | ये सारी निष्पत्तियां कायोत्सर्ग से सधती हैं। स्वस्थ चिंतन
जिस व्यक्ति की अंतर्दृष्टि जाग जाती है, जिसका कायोत्सर्ग सध जाता है उसमें नई-नई दिशाएं उद्घाटित होती हैं, नए-नए आयाम खुलते हैं, उसका सारा जीवन बदल जाता है । चिंतन की धारा में परिवर्तन आ जाता है । चिंतन स्वस्थ हो जाता है । मूढ़ता की अवस्था में चिंतन स्वस्थ नहीं रहता । अंतर्दृष्टि की अवस्था में चिंतन अस्वस्थ नहीं रह सकता, स्वस्थ हो जाता है । जो चिंतन मोह मे स्फूर्त होता है वह कभी स्वस्थ नहीं हो सकता । अस्वस्थ चिंतन से शरीर और मन दोनों अस्वस्थ हो जाते हैं । स्वस्थ चिंतन से शरीर और मनदोनों स्वस्थ होते हैं। - स्वस्थ चिंतन का पहला सूत्र है-अन्यत्व की अनुप्रेक्षा । इससे जो आज तक उपलब्ध नहीं हुआ था, वह उपलब्ध हो जाता है । 'मैं शरीर से भिन्न हूं और शरीर मुझसे भिन्न है-यह अन्यत्व भावना, अनुप्रेक्षा जाग जाती है | और जैसे-जैसे अन्यत्व की भावना पुष्ट होती चली जाती है वैसे-वैसे आत्मा का ज्ञान, आत्मा का प्रकाश हजारों-हजारों रश्मियों को फैलाता रहता है और
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