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२१० - जैन योग . जो लोभ को छोड़कर प्रव्रजित होता है वह अकर्म होकर जानतादेखता है।
अलोभ को लोभ से जीतना-यह प्रतिपक्ष का सिद्धांत है । शांति से क्रोध, मृदुता से मान और ऋजुता से माया निरस्त हो जाती है, वैसे ही अलोभ से लोभ निरस्त हो जाता है । जैसे आहार-परित्याग ज्वर वाले के लिए औषधि है, वैसे ही लोभ का परित्याग असंतोष की औषधि है
यथाहारपरित्यागः ज्वरतस्यौषधं तथा ।
लोभस्यैवं परित्यागः असंतोषस्य भेषजम् ।। कुछ पुरुष लोभ-सहित दीक्षित होते हैं, किंतु यदि वे अलोभ से लोभ को जीतने का प्रयत्न करते हैं, तो वे वस्तुतः साधक ही होंगे । जो पुरुष लोभ रहित होकर दीक्षित होते हैं, वे ध्यान के द्वारा अथवा भरत चक्रवर्ती की भांति शीघ्र ही ज्ञानावरण और दर्शनावरण से मुक्त होकर ज्ञाता और द्रष्टा बन जाते हैं।
२३. श्रद्धा
जाए सद्धाए णिक्खंतो, तमेव अणुपालिया । विजहित्तु
विसोत्तियं । (१/३६) पुरुष जिस श्रद्धा से अभिनिष्क्रमण करे, उसी श्रद्धा को बनाए रखे, चित्त की चंचलता के स्रोत में न बहे । ___लक्ष्य की पूर्ति के लिए अभिनिष्क्रमण करते समय भाव-धारा वर्धमान होती है। उसका हीयमान होना इष्ट नहीं है, फिर भी काल की लम्बी अवधि में वह अवस्थित नहीं रहती, कभी-कभी हीन हो जाती है । इसीलिए आचार्य ने साधक को यह निर्देश दिया-श्रद्धा को बढ़ाओ । यदि बढ़ा न सको, तो अभिनिष्क्रमणकाल में जो श्रद्धा थी, उसे कम मत होने दो | यदि लोभ न कमा सको तो कम-से-कम मूल पूंजी को सुरक्षित रखो । श्रद्धा की हानि चित्त की चंचलता या लक्ष्य के प्रति शंका होने से होती है ।। • इणमेव णावककंखंति जे जणा धुवचारिणो ।
जातीमरणं परिण्णाय चरे संकमणे दढे ॥ (२/६१)
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