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________________ प्रयोग और परिणाम - १८७ ध्यान खड़े और बैठे-दोनों अवस्थाओं में करते थे। उनके ध्यानकाल में बैठने के मुख्य आसन थे-पद्मासन, पर्यंकासन, वीरासन, गोदोहिक और उत्कटिका। भगवान् ध्यान की श्रेणी का आरोहण करते-करते उच्चतम कक्षाओं में पहुंच गए । वे लम्बे समय तक कायिक-ध्यान करते । उससे श्रान्त होने पर वाचिक और मानसिक । कभी द्रव्य का ध्यान करते, फिर उसे छोड़ पर्याय के ध्यान में लग जाते । कभी एक शब्द का ध्यान करते, फिर उसे छोड़ दूसरे शब्द के ध्यान में प्रवृत्त हो जाते ।। भगवान् परिवर्तनयुक्त ध्येय वाले ध्यान का अभ्यास कर अपरिवर्तित ध्येय वाले ध्यान की कक्षा में आरूढ़ हो गए। उस कक्षा में वे कायिक, वाचिक या मानसिक-जिस ध्यान में लीन हो जाते, उसी में लीन रहते । द्रव्य या पर्याय में से किसी एक पर स्थित हो जाते । शब्द का परिवर्तन भी नहीं करते । वे इस कक्षा का आरोहण कर भ्रांति की अवस्था को पार कर गए। भगवान् की ध्यानमुद्रा अनेक ध्यानाभ्यासी व्यक्तियों को आकृष्ट करती रही है | उनमें एक आचार्य हेमचन्द्र भी हैं । उन्होंने लिखा है 'भगवन् ! तुम्हारी ध्यानमुद्रा-पर्यंकशायी और शिथिलीकृत शरीर तथा नासाग्र पर टिकी हुई स्थिर आंखों में साधना का जो रहस्य है, उसकी प्रतिलिपि सबके लिए करणीय है।' भगवन् प्रायः मौन रहने का संकल्प पहले ही कर चुके हैं। अब जैसेजैसे ध्यान की गहराई में जा रहे हैं, वैसे-वैसे उसका अर्थ स्पष्ट हो रहा है। वाक् और स्पन्दन का गहरा संबंध है । विचार की अभिव्यक्ति के लिए वाणी और वाणी के लिए मन का स्पन्दन-ये दोनों साथ-साथ चलते हैं । नीरव होने का अर्थ है मन का नीरव होना | भगवान के सामने एक तर्क उभर रहा है जिसे मैं देखता हूं, वह बोलता नहीं है और जो बोलता है, वह मुझे दिखता नहीं है, फिर मैं किससे बोलूं ? इस तर्क के अन्तस् में उनका स्वर विलीन हो रहा भगवान बोलने के आवेग के वश में नहीं है | बोलना उनके वश में है। वे उचित अवसर पर उचित और सीमित शब्द ही बोलते हैं । वे भिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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