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________________ १६८ - जैन योग • जल-चारण-जल के जीवों को कष्ट दिए बिना समुद्र आदि जलाशयों पर चलने की क्षमता । पुष्प-चारण-वनस्पति को कष्ट दिए बिना फूलों के सहारे चलने की क्षमता । श्रेणी-चारण-पर्वतों के शिखरों पर चलने की क्षमता । अग्निशिखा-चारण-अग्नि की शिखा का आलंबन ले चलने की क्षमता । धूम-चारण-धूम की पंक्ति के सहारे उड़ने की क्षमता । मर्कटतंतु-चारण-मकड़ी के जाल का सहारा ले चलने की क्षमता । ज्योतिरश्मि-चारण-सूर्य, चांद या अन्य किसी ग्रह-नक्षत्र की रश्मियों को पकड़कर ऊपर जाने की क्षमता । • वायु-चारण-हवा के सहारे ऊपर उड़ने की क्षमता । . जलद-चारण-मेघ के सहारे चलने की क्षमता | १४. आमर्ष-औषधि-हस्त, पाद आदि के स्पर्श से व्याधि के अपनयन की क्षमता । १५. श्वेलौषधि-थक से व्याधि के अपनयन की क्षमता । १६. जल्लौषधि-मेल से व्याधि के अपनयन की क्षमता । १७. मलौषधि-कान, दांत आदि के मल से व्याधि के अपनयन की क्षमता। १८. विपुडौषधि-मल-मूत्र से व्याधि के अपनयन की क्षमता । १९. सर्वौषधि-शरीर के सभी अंग, प्रत्यंग, नख, दंत आदि से व्याधि के अपनयन की क्षमता । जिसे ये औषधि-ऋद्धियां (१४ से १९) प्राप्त होती हैं, उसके अवयवों में रोग को दूर करने की क्षमता विकसित हो जाती है और उसके थूक, मेल, मल, मूत्र आदि सुरभित हो जाते हैं । २०. आस्यविष-वाणी के द्वारा दूसरे में विष व्याप्त करने की क्षमता । २१. दृष्टिविष-दृष्टि के द्वारा दूसरे में विष व्याप्त करने की क्षमता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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