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________________ MADAAN M प्रगट हुए प्रचंड पुण्यकी ही देन कही जायेगी.... राजू बोला, संजय ! पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामिके सिवा प्रभु वीरके दश गणधर भगवंतोंकी यह (वैभारगिरि) = निर्वाणभूमि हैं । वो प्रभु वीरके परम विनीत सुशिष्य थे, द्वादशांगीके धारक थे, बीज-बुद्धिके मालिक थे। गणधर भगवंतोंकी पुण्यकथा करते-करते दोनों मित्रोंका आगेका चढ़ाण शुरू हुआ । चढ़ाण थोड़ा कठिन था... मगर सूरज दादाने आज मेहर की थी। इसमें मित्र बेलड़ीका पुण्य तो था ही... अगाधज्ञान, फिर भी अहंकार का नामोनिशान नथा... इसमें भी गौतमस्वामी तो प्रभु वीरके सन्मुख अतिनम्र बालक जैसे होकर ही रहते । उनके इस सर्वोत्कृष्ट विनय गुणको कर उनमें अनंत लब्धियाँ प्रगट हुई थीं। आज भी उनका म लेते हैं और काम होता है। वह प्रभुवीरकी भक्तिमेंसे दाईं तरफ एक छोटी पगदंडी जा रही थी। यह केड़ी मार्गपे २०० कदम दूर राजू, संजूको ले गया... जहाँ बड़ी शिला थी... इस शिलाके बाजूमें ही दो स्मारक थे। S Jain log interational For Private Personal use only
SR No.002739
Book TitleEk Safar Rajdhani ka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmadarshanvijay
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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