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सुनार बना खूनी, खूनी बना मुनि.....
जू ! राजा श्रेणिक, महावीरका पक्का भक्त बन गया था उस समयकी यह बात है। "वीर" का नाम सुनते ही श्रेणिक के रोम-रोम खडे हो जाते और हर्षसे नाचने लगते। श्रेणिकको एक नित्य नियम कि राजसेवक द्वारा किसी एक दिशा में प्रभु "महावीर विचर रहे हैं'... ऐसा समाचार मिलते ही तुरंत उस दिशाकी ओर कुछ आगे बढकर एकसो आठ स्वर्णके जौ का साथिया बनाकर भावविभोर हृदयसे रोमांचित-देहद्वारा प्रभुकी स्तुति और चैत्यवंदन करते।
संजय ! १०८ (एकसो आठ) स्वर्ण-जवके लिए इसने एक स्वर्णकारको खास आदेश दे रखा था..../ सुनार रोज १०८ स्वर्ण-जव तैयार करता था....... एक बार सुनार (स्वर्णक) जवला बना रहा था। इतने में हीमासक्षमणके तपस्वी मेतार्यमुनि इसके घर भिक्षार्थ जा पहुँचे । सुनारने खडे होकर अहोभावसे महात्माको भिक्षा दान किया। किन्तु बात ऐसी बनी कि रसोड़ेमें मिक्षा बोहराने जाते, जो स्वर्ण-जवके दाने थे-इसको अनाजके दाने समझकर क्रौंच पक्षी चुग (खा) गया। महात्मा तो भिक्षा लेकर स्वस्थानकी और लौटे। आहार लेकर इसी नदीके (घाटके) पास कायोत्सर्ग ध्यानमें मग्न बन गये।
मिक्षादानके बाद सुनारने देरवा तो जौ दिखनेमें आया नहीं। इसने मुनिके वेशको धतिंग समझकर मेतार्यमुनिने जवले चुरा लिये होंगे ऐसी शंका हुइ। वो तो दौड़ा जहाँ महात्मा ध्यानस्थ थे..... वहाँ..... क्रोधसे अंधा बना उसने पानीमें भिगोये हुए चमडेको मुनिके मस्तकको चारों ओरसे लिपटाकर खींचके बाँध दिया। ऊपरसे मध्याहन तापसे सूर्यकी धूप लगते ही व्याघ्रचर्म सहसा संकुचित होने लगा... इसके साथ मुनिके मस्तककी नसें भी खिंचने लगीं। असह्य वेदनाको समभावसे सहन करते मेतार्यमुनि आत्मध्यानमें एकाग्र (एकचित) बन गये। योग-निद्रामें सो गये। "वेदना तो जड़ ऐसे देहको हो रही है" "देह दु:खं महाफलं" महावीरप्रभुके श्रीमुखसे सुने इस महावाक्योंको इन्होंने सिद्ध कर दिखाया। इन्होंने सचमुच कम्मर कसी थी। मस्तककी नसें टूटने
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