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________________ संजू बोला, राजाने भी यह दृश्य देरवा। उनके दिलमें दया यी। दूसरे दिन राजाने इसको राजसभामें बुलाया - "राजू ! पापानुबंधिपुन्य यानि क्या"? मम्मण बोला, मुझे दो सींग बैलके चाहिए। राजाने कहा इसके लिए इतनी तकलीफ! संजू ! जिस पुन्यसे मिली भोगसामग्री नये पाप बँधाकर दुर्गति और दु:खोंकी ओर धकेल दे - इसका नाम पापानुबंधीपुन्य। मम्मण बोला - हाँ, राजन्। राजा बोले - तुझे सींग तो क्या अच्छेसे अच्छी बैलोंकी डी चाहिए इतीनी दिला हूँ? संजू! उस मम्मणने पूर्वभवमें पापानुबंधीपुन्य उपार्जन किया था। प्रभावनामें मिले सींहकेसरिया मोदक (अत्यंत सुगंधी मधुर) महाराज साहबको प्रेमसे वोहराया था। मम्मण बोला ! नही राजन् ऐसे बैल नही ! राजा बोले-(तो) कैसे बैल? परंतु यह लड्डु वोहराने के पश्चात् इसको मालुम हुआ कि यह लड्डु तो अत्यंत मधुर था तो लड्डु वापस लेने साधु के पीछे पडा। लड्डुवोहरानेके पश्चात् बहुत पश्चात्ताप किया। मम्मणने कहा : मेरे घर पधारिये.. राजा मम्मणके यहाँ पहुँचा । अंदर का कमरा खोलता .... वहाँ तो प्रकाश प्रकाश छा गया...! संजू! मम्मणने प्रेमसे लड्डु वोहरा दिया इससे वह अपार संपतिका मालिक बना। पर वोहरानेके बाद पश्चात्तापहआ...... इसीलिए वह कंजूस बना । वह संपत्ति को भोग तो न सका, बल्कि नरकमें जा पहुंचा। राजाकी आँखे चकाचौंध हो गई। अंदर जाकर रत्नोंके ने दोनों बैलोंको देखकर वह बोल उठा..... ओह बापरे ! तनी समृद्धि तो मेरे कोश (भंडार) में भी नहीं है। श्रेणिक तो वहाँसे चल पडे। परिग्रह संज्ञाकी पराकष्ठामें पहुँचे पापानुबंधी पुण्यवाले मम्मणको वह (श्रेणिक) सोचता ही रहा ..... संजू ! कोई भी अच्छा काम करनेके बाद खुशी हो - आनंदका अनुभव हो, मनहीमन इसकी अनुमोदना हो तो वह पुन्य अनेक गुणाकार साथ डब्बल हो जाता है...... वह पुन्यानुबंधिपुन्य पहचाना जाता है। जो सद्गति को प्राप्त कराता है और अच्छे काम करने के बाद पछतावा हो जाय तो समझना कि जो पुन्य उपार्जन हुआ वह पापानुबंधीपुन्य। राजू बोला : संजू ! मम्मणके पास एक नया पैसा अनीति-अन्यायका न होते हुए भी धन उपरकी अत्यंत मूर्छाने इसको सातवीं नरकमें पहुंचा दिया। इसीलिए ही कहा है लोभ तो पापका बाप है। शालिभद्रका पुन्य पुन्यानुबंधी था। इसने पूर्वभवमें जैसे-तैसे भी अपने लिए प्राप्त की हुइ खीर अति हर्षित हुए मुनिभगवंतको वहोरा देनेके बाद मनहीमन खूब अनुमोदना की, जिससे दूसरे जन्ममें इसको निन्यानवे (९९) पेटी समेत भोगसामग्री तो मिली पर साथ-साथ इसको त्याग करने की शक्ति भी मिली - सर्वविरति मिली और सद्गति भी मिली। संजू ! मिली हुई बुद्धि....... नीरोगी काया और लक्ष्मी यह तीनोंका जो सदुपयोग न हुआ तो वह तीनों भी निष्फल हैं। जीवनको उन्मार्गकी ओर फेंक देता हैं.. संजू ! मम्मणका पुण्य पापानुबंधि था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002739
Book TitleEk Safar Rajdhani ka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmadarshanvijay
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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