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________________ राजमार्गके एक कोने पर खंडहर महेल नजरमें चढ़ा । संजु आगे बढ़ गया जिसका ख्याल ही नहीं आया । अरे... ओ संजू ! आगे कहाँ निकल गया ? यहाँ आओ यहाँ आओ..... जैसे कि पूर्व घटनाओंकी तंद्रामें से बहार आया न हो, इस तरह संजूने पीछे मुड़कर देखा... तो राजू वही खंडहर महलकी ओर सूक्ष्म नजरोंसे देख रहा था । त्वरित गति से वह पीछे लौटा । राजू ! तुम क्या देख रहे हो ? संजू श्रेणिक - पुत्र नंदिषेणका यह राजमहल ! जिसकी नक्शी कारीगरी पूरे राजगृहमें प्रसिद्ध बनी थी। समय समयका कार्य करता है । जैसे खंडित बने है राजमहल ! ऐसे ही खंडित हुए थे राजपुत्रमेंसे महात्मा बननेवाले नंदिषेणके भाव.... । प्रभु महावीरकी देशना सुनकर शासन देवीकी मना होते हुए भी तीव्र वैराग्यसे राजकुमार नंदिषेण ने (प्रभु महावीर के पास) दीक्षा ली... संजू ! महात्मा नंदिषेण स्वाध्याय करते थे, बहुत तप भी करते थे । सेवा वैयावच्च तो इनका प्राण था । ध्यान और कायोत्सर्ग भी करते । परंतु काम-वासना इनका पीछा नही छोड़ती । वासनाका कीडा इनके मगजको बार बार डंसता..... 1 राजू ! इतना तप और सेवा होते हुए भी.. ? हाँ, एक तो इनका भोगावली कर्म अभी बाकी था। दूसरे नंबरमें वह भुक्त भोगी थे । इसीलिए सांसारिक जीवनकी मौज-मस्तीयाँ इनके नजर समक्ष ही घूमती । मुनिजीवनको कलंक न लग जाय, इसीलिए महात्मा नंदिषेण एकबार पर्वत परसे गिरनेके लिए गये कि शासनदेवीने तुरंत बचा लिया। और भोगकर्म भुगते बिना और कोई चारा नहीं है... ऐसी जानकारी दी गई। महात्मा तो गंभीर बन गये। कालानुसार एक बार प्रभु वीर की अनुज्ञा पाकर गोचरी वहोरने गये । अनजानमें ही किसी वेश्या के घर जा पहुँचे । धर्मलाभ... वेश्याने तो तुरंत ही जवाब लौटाया... धर्मलाभ नहीं... यहाँ तो धनलाभ चाहिए...! मुनि बन गये गर्विष्ट. क्या हम निर्धन है ऐसा तु मानती है। ले... यह धनलाभ... इतना कहकर लब्धिसंपन्न मुनीने एक बारीक (तिनका) घासको खींचा... खींचनेके साथ ही साड़े बारह क्रोड़ सोनैयाकी वृष्टि हुई । वेश्या अब कुबेर भंड़ारी जैसे नवयौवन वह महात्माको क्या जाने देगी ? अनेक प्रकारके | वचनबाण और हावभावसे मुनिको वश किया। चारित्र वेशसे मुनिका पतन हुआ, परंतु जिनधर्म प्रति अविहड श्रद्धा In Education International 9 वह विचलित नहीं हुए। इनका सम्यकत्व अणिशुद्ध था । त्याग मार्गसे इनका पतन हुआ, पर वैराग्य मार्गसे नहीं.... इसी कारण वेश्याके यहाँ आनेवाले सदैव दश व्यक्तिओंको पतित नंदिषेण, प्रतिबोध करके वीर प्रभुके पास दीक्षा के लिए भेजते... संजू ! जरा तो सोच... वेश्याके पास आनेवाले व्यक्ति कैसे होते हैं ? ऐसे भारी हृदयको भी पिघला देनेवाली अमोघ देशना शक्ति कैसे प्राप्त हुई होगी ? कहना ही पड़ेगा कि पूर्वमें की हुई तप आदि साधनाओंसे यह लब्धि प्रगट (प्राप्त) हुई थी। एक दिन नौ को प्रतिबोध किये, पर दसवां बोध ही पा नही रहा था । बहुत देर हो गई थी। आखिर कामलताने (वेश्याने) थोड़ी सी मजाक की, आज तो दसवें आप ही... ! नंदिषेणजीका भोगावली कर्म खतम हो चुका था । तेजीको तो टकोर ही बस... । वे सावधान बन गये। बस, जा रहा हुँ... इतना कहकर सहसा सीढ़ी उतर गये और प्रभु वीरके पास पहुँच गये... फिरसे दीक्षा लेकर, प्रायश्चित्त करके आत्म-कल्याणको पाये। संजू ! कर्म-जोर के कारण कमजोर बने हुए नंदिषेण का पतन तीन कारणोंसे हुआ । (१) मुख्य कारण तो इनका भोग-कर्म ही निकाचित था । - (२) दो साथमें जाना चाहिए, जब अकेले ही भिक्षा लेने गये । (३) गर्विष्ट बनकर तपोलब्धिसे सोनैयाकी वृष्टि की, इस प्रकारके अहंकारकी जरुरत ही नहीं थी । अहंकारसे भी पतन हुआ । इतने वक्त तक शांतिसे सुन रहे संजूने मौन तोडा... जो कि इनकी पदयात्रा तो अविरत चालु ही थी । इसने राजू से पूछा- राजू ! श्रेणिकको कितने पुत्र थे, कितनी रानीयाँ थी ? संजू ! राजा श्रेणिक के अनेक पुत्र थे । इसमें मेघकुमार हल्ल, विहल्ल आदिने दिक्षा ली थी । तेईस पुत्र तो संसार की सर्वोत्कृष्ट-समृद्धि धारक अनुत्तर विमानवासी देव बने । दश पौत्र देवलोकमें गये। श्रेणिककी तेईस रानियाँ तीव्र तप करते करते मुक्ति में गई है। आह ! ऐसा उत्तम राजकुल ! संजु सहसा बोल उठा ! हा... क्या बात करूँ संजू ! खुद राजा श्रेणिक और इनके पौत्र उदायी, दोनों भावी तीर्थंकरके जीव हैं । For Private & Personal Use Only - एक ही घरमें दो तीर्थंकरके जीव उत्पन्न हुए। दादा और पोता । www.jainelibrary.org
SR No.002739
Book TitleEk Safar Rajdhani ka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmadarshanvijay
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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