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________________ राजा श्रेणिक अभी तो जैन धर्म नहीं पाया था, और बौद्ध धर्मका कट्टर उपासक था, उस समयकी बात है | श्रेणिककी पटराणी चेलणा पियरसे ही समकित पाकर आई थी और कट्टर जैन धर्मी थी। जबकी श्रेणिक कट्टर बौद्ध धर्मी । दोनोंके बीच अपने धर्मके लिए कितनी ही बार वाद-विवाद होते थे । आमने-सामने आ जाते, और झगड़े भी हो उठते । एक बार श्रेणिकने सोचा चेलना यदा तदा अपने जैन धर्मकी महानता के लिए गाना गाते थकती ही नहीं । अब तो एकबार अच्छी तरहसे इसको सबक सीखाना होगा । बस, श्रेणिक ने मनमें ठान ली, मनही मन एक नाटक भी रच दिया । उन्होंने एक वेश्याको बुलाया, और पूरा नाटक समझा दिया, इतना ही नहीं, इस मंदिर के पाससे एकबार एक जैन मुनि पसार हो रहे थे, तभी खुद राजाने मंदिरमें पधारने की विनंती की । महात्माजीने तो सरल भावसे मंदिरमें प्रवेश किया । प्रवेश करते ही राजाने तो पीछे से एक वेश्या ( हलकी स्त्री) को भी धकेल दीया । और तुरंत ही बाहरसे दरवाजा बंद कर दीया। साथ ही राजा तो मन ही मन आनंद से झूम उठे... और सोचने लगे..... तो जैन धर्मकी पुंछ बनी हुई चेलणा ही नहीं, पर सारे नगरकी जनताको मालुम होगा कि जैन मुनि कैसे काम करते है ! अब सुबह हो इतनी ही देर है । बौद्धधर्मकी ध्वजा लहरायेगी और जैन धर्म का धजागरा ( - उपहास ) वाह ! अब तो चेलना सचमुच फँस गई है न...??? जब की यहाँ, मंदिरमें प्रवेश किये हुए मुनिने वेश्याकी ओर तीखी दृष्टि से देखा और अपनी सात्त्विक जबानसे आदेश दिया... खबरदार ! एक कदम भी आगे बढ़ाया तो ... ! कोनेमे ही बैठी रहना, वरना खैर नहीं...। पूरी दुनियाको वश करनेवाली वेश्या बेचारी, Jain Education International 4 मुनिके आदेश से बिल्कुल घबरा गई... मुनिके वचन के वशसे कोनेमें ही बैठी रही । कुछ भी ना कर सकी। मुनिको राजा के नाटक की गंध आ गई। प्रभात होते ही जनसमूह के बीच दरवाजा खुलेगा और वेश्य के साथ जैन मुनि भी बाहर निकलेंगे तब त जिनशासनकी कैसी भयंकर अपभ्राजना होगी ? बस, इस अवहेलनाको दूर करने के लिए जो भी करना होगा वह करूँगा, परंतु जैन धर्मकी निंदा बिल्कुल नहीं होनी चाहीए... । महात्मा गीतार्थ थे अर्थात् शास्त्रानुसार परिकर्मित बुद्धिवाले थे। इनका पांचो इन्द्रिय पर जबरदस्त का था, उन्होने मनही मन तुरंत निर्णय ले लिया... गभारेके गोख में दीया जल रहाथा... इसमें ओधा... मुहपत्ति और तमाम वस्त्र (चोलपट्टा सिवा) जला दिया... और इनकी राख ( भभूति) पूरे शरीरपर लगाई, भालपर सिंदुरसे त्रिरेखा खींची, खूंटी पर लटकती रुद्राक्ष तथा अन्य मालाएँ गलेमें तथा हाथमें पहन ली, नीचेका वस्त्र भी दीयेकी कालीख व सिंदुरसे रंगीन बना दिया । बस, साक्षात् लंगोटधारी बाबाजी ही देख लो । जैनमुनिके रूपकी किसीको कल्पना भी न हो सके । श्रेणिकने एक रातके बीचमें ढिंढोरा पिटवा या । सुबह होते ही पूरे जनसमूहके बीच राजाने पुजारी को दरवाजा खोलने का आदेश दिया... अंदर‍ बैठे महात्माजी सावधान हो गये, मंदिर का त्रिशूल अपने हाथमें ले लिया... चर्र... चर्र... दरवाजा खुलनेके साथ ही "अलख निरंजन" "अलख निरंजन" बोलते और त्रिशूल को हाथसे ऊपरकी और करते हुए बाबाजी (मुनि) बाहर निकले... और पीछे पीछे बेचारी गरीब बनी वेश्या भी बाहर निकली। पूरी जनता साश्चर्य बन गई । राजा श्रेणिकको काटो तो भी खून न निकले जैसी परिस्थिति हुई... शरम से नीचे की ओर देखने लगा... पूरी हकीकत जानी, तब वह जैन मुनिके संयम और समयसूचक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002739
Book TitleEk Safar Rajdhani ka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmadarshanvijay
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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