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________________ जैन पुराणों में कथा के माध्यम से इन समस्त बातों का समावेश हुआ है । मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए जैनपुराणों को यह अनुपम देन है। इस सामग्री का प्रस्तुत ग्रन्थ में 'दार्शनिक एवं धार्मिक सामग्री' शीर्षक में संकलन किया गया है। संस्कृति का उत्कर्ष या अपकर्ष भौगोलिक स्थिति पर आश्रित होता है। भौगोलिक ज्ञान के अभाव में संस्कृति को यथार्थ स्थिति को जानना असंभव है । जैन पुराणों में द्वीप, सागर, देश, नगर, ग्राम, नदी, पर्वत, वन, सरोवर के न केवल नामोल्लेख है अपितु उनका संक्षिप्त परिचयात्मक वर्णन भी उपलब्ध है। भूकम्प, ज्वालामुखी, वर्षा या अन्य कारणों से भौगोलिक स्थिति परिवर्तित होती रही है। जहाँ अतीत में नगर थे वहाँ आज उनके खण्डहर भी नहीं है। अतः अतीत में कहाँ क्या था ? या वर्तमान में उनकी स्थिति कहाँ हो सकती है ? इस शोध-खोज के सन्दर्भ में जैन पुराणों का सांस्कृतिक अवदान सदैव स्मरणीय रहेगा । ऐसी सामग्री का संकलन भौगोलिक सामग्री शीर्षक में द्रष्टव्य है। अपने अतीत को जानने, पहिचानने के लिए हमें इतिहास देखना होता है । हमारे पूर्वज कौन थे? उन्होंने किस वंश को अलंकृत किया था। जीवन-मूल्यों की सुरक्षा के लिए वे क्या करते थे? युद्ध के समय कौन अस्त्र-शस्त्र व्यवहृत होते थे? कौन से वाद्य कब बजाये जाते थे? पुरुष और स्त्रियाँ आभूषण किन अंगों में धारण करते तथा आभूषणों के क्या नाम थे? विद्याओं का क्या स्थान था ? आदि प्रश्नों का समाधान आज पौराणिक संस्कृति से सरलतापूर्वक प्राप्त हो जाता है। वषभदेव के १००८ नाम और घृतराष्ट्र के १०० पुत्रों के नाम भी पुराण ही अपने भीतर संजोए हुए हैं । इस प्रकार पराणों के इस सांस्कृतिक अवदान के सन्दर्भ में ध्यातव्य है ऐतिहासिक सामग्री। इस सम्पूर्ण विवेचना से ज्ञात होता है कि शरीर, मन और आत्मा इन तीनों को सुसंस्कृत-अलंकृत कर उच्चतम जीवन मल्यों को प्राप्त करना सांस्कृतिक जीवन का लक्ष्य है और भोजन-पान, आहार-विहार, वस्त्राभूषण, क्रिया-कलाप आदि को सुसंस्कृत कर जीवनयापन करना सांस्कृतिक प्रेरणा का प्रतिफल है। अतः कहा जा सकता है कि उच्चतम जीवन-मल्यों की प्राप्ति में सहायक जैन पुराणों के सांस्कृतिक अवदान के महत्त्व से जब तक समाज अपरिचित रहेगा, नर से नारायण बनने के भाव उसमें कभी उत्पन्न नहीं होंगे। आशा है प्रस्तुत रचना के अध्ययन-मनन और अनुशीलन से समाज लाभान्वित होगा। जैनविद्या संस्थान के पूर्व संयोजक डॉ० गोपीचन्दजी पाटनी, पूर्व संयोजक श्री ज्ञानचन्द्रजी खिन्दूका, संयोजक 1. कमलचन्दजी सोगाणी और साहित्यानुरागी डॉ० नवीनकुमारजी बज के सुझाव से इस सांस्कृतिक सामग्री को स्वतन्त्र पुस्तक का स्वरूप प्राप्त हो सका । अतः मैं इन सभी के प्रति आभार प्रकट करता हूँ। प्रो० प्रवीणचन्द्र जैन सम्पादक १. आचार्य जिनसेन, महापुराण-भाग प्रथम, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, मार्च १९५१ ईसवी, पर्व १, श्लोक २१ । २. इतिहासं इतीष्टं तद् इतिहासीदिति श्रुतेः । इतिवृत्तमथतिहमाग्नायञ्चामनन्ति तत् ।। वही, १-२५ । ३. स च धर्मः पुराणार्थः पुराणं पञ्चधा विदुः । क्षेत्र कालश्च तोर्थश्च सत्पुंसस्तद्विचेष्टितम् ।। क्षेत्र त्रैलोक्यविन्यासः कालस्त्रकाल्यविस्तरः। मुक्त्युपायो भवेत्तीर्थ पुरुषास्तन्निषेविणः ॥ न्याप्यमाचरितं तेषां चरितं दुरितच्छिदम् । इति कृत्स्ना पुराणार्थः प्रश्ने संभावितस्त्वया ॥ वही, २/३८-४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002719
Book TitleJain Purano ka Sanskrutik Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Culture
File Size4 MB
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