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________________ १४ जैन पुराणकोश क्रियावादी नियति, स्वभाव, काल, देव और पौरुष इन पाँच को स्वतः, परतः, नित्य और अनित्य इन चार से गुणित करने पर बीस भेद होते हैं तथा इन बीस भेदों को जीवादि नौ पदार्थों से गुणित करने पर इसके एक सौ अस्सी भेद होते है। अक्रियावादी जीवादि सात तत्त्व-नियति, स्वभाव, काल, देव और पौरुष की अपेक्षा न स्वतः हैं और न परतः । अतः सात तत्त्वों में नियति आदि पाँच का गुणा करने पर पैंतीस और पैंतीस में स्वतः परतः इन दो का गुणा करने पर सत्तर भेद हुए । जीवादि सात तत्त्व नियति और काल की अपेक्षा नहीं है अतः सात में दो का गुणा करने पर चौदह भेद हुए । इन चौदह भेदों को पूर्वोक्त सत्तर भेदों में मिला दिये जाने पर अक्रियावादियों के चौरासी भेद होते हैं । हपु० १०.५२-५३ अज्ञानवादी जीवादि नो पदार्थों को सत्, असत् उभय, अवक्तव्य, सद् अवक्तव्य, असद् अवक्तव्य और उभय अवक्तव्य इन सात भंगों से कौन जानता है इस अज्ञानता के कारण नौ पदार्थों में सात भंगों का गुणा करने से त्रेसठ भेद होते है। इनमें जीव की सत् उत्पत्ति को जाननेवाला कौन है ? जीव असत् उत्पत्ति को जाननेवाला कौन है ? जीव की सत्-असत् उत्पत्ति को जाननेवाला कौन है ? और जीव की अवक्तव्य उत्पत्ति को जाननेवाला कौन है ? भाव की अपेक्षा स्वीकृत इन चार भेदों के अज्ञानवादियों के कुल सड़सठ भेद होते हैं । हपु० १०.५४-५८ विनयवादी माता, पिता, देव, राजा, ज्ञानी, बालक, वृद्ध और तपस्वी इन आठों में प्रत्येक की मन, वचन, काय और दान से विनय किये जाने से इसके बत्तीस भेद होते है। हपु० १०.५९-६० मुक्त जीव की विशेषताएँ क्र० १. २. ३. ४. नाम अनश्वरता अचलता अक्षयपना हपु० १०.४९-५१ अव्याबाधपना ९. नीरज सपना अनन्तज्ञानीपना १०. निर्मलपना १. दर्शन - प्रतिमा २. व्रत- प्रतिमा Jain Education International ६. अनन्तदर्शनपना ११. अच्छेद्यपना ७. अनन्तवीर्यपना १२. अभेद्यपना ८. अनन्तसुखपना १३. अक्षरपना १४. अप्रमेयपना मपु० ४२.९५-१०३ योग और प्रतिमाएँ प्रतिमाएँ ७. ब्रह्मचर्य - प्रतिमा ८. आरम्भत्याग - प्रतिमा ३. सामायिक प्रतिमा ४. प्रोषधोपवास-प्रतिमा ५. सचित्तत्याग- प्रतिमा ६. राविभुत्तित्याग प्रतिमा ४. अनुभयमनोयोग ५. सत्यवचनयोग ६. असत्यवचनयोग ७. उभयवचनयोग वीवच० १८.३६-३७, ६०-७० योग-भेव 1 हरिवंशपुराणकार ने चार मनोयोग चार वचनयोग और पाँच काययोग मिलकर तेरह प्रकार का बताया है। टीकाकार ने इनके निम्न नामों का उल्लेख किया है १. सत्यमनोयोग २. असत्यमनोयोग ३. उभयमनोयोग १. अहिंसाणुव्रत ४. स्वदार संतोषव्रत ९. परित्याग प्रतिमा १०. अनुमतित्याग- प्रतिमा ११. उद्दिष्टत्याग-प्रतिमा १. दिग्व्रत २. अनोपदेश दुःश्रुति । १. सामायिक २. प्रोषधोपवास ८. अनुभवचनयोग ९. औदारिक काययोग प्रमसंवत गुणस्थान में आहारक काययोग और आहारकमिष काययोग की संभावना रहने से योग के पन्द्रह भेद भी माने गये हैं । हपु० ५८.१९७. १०. औदारिकमिश्रकाययोग ११. वैक्रियक काययोग For Private & Personal Use Only १२. वैक्रियकमिश्रकाययोग १३. कार्मणकाययोग व्रत और उनके अतिचार व्रत पंचाणुव्रत २. सत्याणुव्रत ५. इच्छापरिमाणव्रत गुणवत परिशिष्ट अतिचार अहिंसा के अतिचार १. बन्ध-गतिरोध करना । २. वध दण्ड आदि से पीटना । ३. छेदन - कर्ण आदि अंगों का छेदना । २. सीत २. देशव्रत अपध्यान, प्रमादाचरित हिमादान और हपु० ५८.१४४-१४७. शिक्षावत ३. उपभोग- परिभोगपरिमाण ४. अतिथिसंविभाग ०५८.१३८-२४e ४. अतिभारारोपण अधिक भार लादना । ५. अन्नपान निरोध- समय पर भोजन-पानी नहीं देना । हपु० ५८.१५३-१५८ हपु० ५८.१६४-१६५. www.jainelibrary.org
SR No.002719
Book TitleJain Purano ka Sanskrutik Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Culture
File Size4 MB
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