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४ : जेन पुराणकोश
देवकृत चौदह अतिशय
१. अर्द्धमागधी भाषा का होना ।
२. समस्त जीवों में पारस्परिक मित्रता का होना ।
३. सभी ऋतुओं के फल-फूलों का एक साथ फलना-फूलना ।
४. पृथिवी का दर्पण के समान निर्मल होना ।
५. मन्द-ति वायु का बहना।
६. सभी जीवों का आनन्दित होना ।
७. पवनकुमार देवों द्वारा एक योजन भूमि का कीट रहित एवं
निष्कंटक किया जाना ।
८. स्तनितकुमार देवों का सुगन्धित बुष्टि करना ।
९. चलते समय चरणतले कमल का होना ।
१०. आकाश का निर्मल होना ।
११. दिशाओं का निर्मल होना ।
१२. आकाश में जय-जय ध्वनि होना ।
१३. धर्मचक्र का आगे रहना ।
१४. पृथ्वी का नान्यादि से सुशोभित होना ।
हरिवंशपुराणकार ने अर्हन्त को ध्वजादि अष्ट मंगल द्रव्यों से युक्त तो बताया है किन्तु देवकृत चौदह अतिशियों में इसे सम्मिलित नहीं किया है ।
आवकारी क्रियाएँ
हपु० ३.१६-३०
साम्परायिक आसयकारी २५ क्रियाएँ
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१. सम्यक्त्व क्रिया
२. मिथ्यात्व क्रिया ५. ईर्यापथ क्रिया
४. समादान क्रिया ७. कायिकी क्रिया ८. क्रियाधिकरणी क्रिया ९ पारितापिकी क्रिया १०. प्राणातिपातिकीक्रिया ११. दर्शन क्रिया १२. स्पर्शन क्रिया १२. प्रत्याविकी क्रिया १४ सन्तानुपातिनी क्रिया १५ जनाभोग क्रिया १६. स्वहस्त क्रिया १७. निसर्ग क्रिया १८. विदारण क्रिया १९. आज्ञाव्यापादिकी क्रिया २०. अनाकांछा क्रिया २१. प्रारम्भ क्रिया २२. पारिग्रहिकी क्रिया २३. माया क्रिया २४. मिथ्यादर्शन क्रिया २५. अप्रत्यख्यान क्रिया हपु० १० ५८.५८-८२
३. प्रयोग किया
६. प्रादोषिकी क्रिया
पापाखावकारी १०८ क्रियाएँ
समरम्भ, समारम्भ और आरम्भ ये तीनों कृत, कारित और अनुमोदना पूर्वक होने से प्रत्येक के १३ होते हैं इस प्रकार तीनों के कुछ ९ भेद हो जाते हैं । ये भेद क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों के योग से उत्पन्न होने के कारण प्रत्येक के चार-चार भेद हो जाते हैं । इस प्रकार समरम्भ, समारम्भ और आरम्भ तीनों के पृथक्-पृथक् बारहबारह भेद करने के पश्चात् चूँकि ये क्रियाएएँ मन, वचन और काय से सम्पन्न होती है । अतः प्रत्येक के बारह भेदों को इन तीन से गुणित करने पर प्रत्येक के छत्तीस भेद और तीनों के कुल एक सौ आठ भेद होते हैं । जीव प्रतिदिन ऐसे एक सौ आठ प्रकार से आस्रव करता है ।
हपु० ५८.८५
१. चमर
५. देव
९. जलप्रभ
इन्द्र भवनवासी देवों के इन्द्र २. वैरोचन ३. भूतेश ६. वेणुधारी ७. पूर्ण १०. जलकान्ति ११. हरिषेण १४. अग्निवाहन १५. अमितगति १८. महाघोष १९. वेलांजन प्रतीन्द्र भवनवासी देवों के इन्हीं नामों के बीस प्रतीन्द्र होते हैं। वीवच० १४.५४-५८
१२. अग्नि १७. घोष
१. किन्नर
५. अतिकाय
९. मणिभद्र
१३. सुरूप
१. सौधर्मेन्द्र ५. बामेन्द्र
९. आनतेन्द्र
१. सूर्य
१. राजा
७.
८.
९.
व्यन्तर देवों के इन्द्र २. किम्पुरुष ३.
६. महाकाय
१०. पूर्णभद्र १४. प्रतिरूप
प्रतीन्द्र व्यन्तर देवों के सोलह इन्हीं नामों के प्रतीन्द्र होते हैं । वीवच० १४.५९-६३
क्र० सं० नाम ऋद्धि
१.
२.
३.
उग्र
कल्पवासी देवों के इन्द्र २. ऐशानेन्द्र
६. सातवे
१०. प्राणतेन्द्र
अक्षीर्णोद्ध अक्षीण-पुष्पद्ध
सी-महान
अक्षीण संवास
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सत्पुरुष
७. गीतरति
११. भीम
१५. काल
प्रतीन्द्र कल्पवासी देवों के इन्हीं नामों के बारह प्रतीन्द्र भी होते हैं । वोवच० १४.२५, ४०-४८ ज्योतिष देवों के इन्द्र
२. चन्द्र
अमृतसाविणी
अम्बरचारण
आमर्ष
षष ऋि
कुल १०० होते हैं।
ऋद्धियाँ
इतर दो इन्द्र
परिशिष्ट
४. धरणानन्द
८. अवशिष्ट
१२. हरिकान्त
१६. अमितवाहन
२०. प्रभंजन
४. महापुरुष
८. रतिक्रीति
७. शुक्रेन्द्र ११. आरणेंन्द्र
३. सनत्कुमारेन्द्र ४. माहेन्द्र ८. शतारेन्द्र १२. अच्युतेन्द्र
२. सिंह
१२. महाभीम १६. महाकाल
वीवच० १४.५२-५३
सन्दर्भ
मपु० ११.८८
मपु० ६.१४९
मपु० ३६.१५५
मपु० ३६.१५५
मपु० २.७२
मपु० २.७३
मपु० २.७१
मपु० ११.८२
मपु० ३६.१५३
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