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-४८२] १२. धर्मानुप्रेक्षा
३७३ अरहंत ॥ "वर्णद्वयं श्रुतस्कन्धे सारभूतं शिवप्रदम् । ध्यायेजन्मोद्भवाशेषक्लेशनिर्मूलनक्षमम् ॥' 'सिद्ध' 'अहं'वा ॥ "अवर्णस्य सहस्रार्ध जपन्नानन्दसंभृतः। प्राप्नोत्येकोपवासस्य निर्जरा निर्जिताशयः॥''अ'तथा "आदिम चाहतो नाम्रोऽकार पञ्चशतप्रमान् । वारान् जपेत् त्रिशुद्ध्या यः स चतुर्थफलं श्रयेत् ॥" अ॥"पञ्चवर्णमयीं विद्यां पञ्चतत्त्वोपलक्षिताम् । मनिवीरैः श्रुतस्कन्धाद्वीजबुद्ध्या समुद्धृताम् ॥ 'ओं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः अ सि आ उ साय नमः ।' "अस्यां निरन्तराभ्यासाद्वशीकृतनिजाशयः । प्रोच्छिनत्त्याशु निःशङ्को निर्गुढं जन्मबन्धनम् ॥" "मङ्गलशरणोत्तमपदनिकुरम्बं यस्तु संयमी स्मरति । अविकलमेकाप्रधिया स चापवर्गश्रियं श्रयति ॥" चत्तारि मंगलं, अरहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगोत्तमा, अरहंत लोगोत्तमा, सिद्ध लोगोत्तमा, साह लोगोत्तमा, केवलिप लोगोत्तमो। चत्तारि सरणं पव्वजामि, अरहंत सरणं पव्वजामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वजामि ॥ "सिद्धेः सौधं समारोदमियं सोपानमालिका । त्रयोदशाक्षरोत्पन्ना विद्या विश्वातिशायिनी॥" 'ओं, अरहंत सिद्ध योगि केवली स्वाहा'। यो भव्यः इमम् ऋषिमण्डलमत्रराजं सप्तविंशतिवर्णोपेतम् 'ओं ह्रां ह्रीं हूं हें हैं ह्रौं ह्रः असिआउसासम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यो नमः।" इति ध्यायति जपति सहस्राष्टकम् । ८००० । स वाञ्छितार्थम् इहपरलोकसुखसर्वाभीष्टं प्राप्नोति । तथा ओं ह्रीं श्रीं अहं नमः । नमः सिद्धाणं । ओं नमो अर्हते केवलिने परमयोगिने अनन्तविशुद्धपरिणामविस्फुरदुरुशुक्लध्यानाग्निनिर्दग्धकर्मबीजाय
उत्पन्न सोलह अक्षरोंके मंत्रका भी जप करना चाहिये। वह मंत्र हैं-'अर्हत् सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः' । जो ध्यानी मनको एकाग्र करके दो सौ बार इस मंत्रका जप करता है वह नहीं चाहते हुएमी एक उपवासके फलको प्राप्त करता है || 'अरहंत सिद्ध' अथवा 'अरहंत साडे' इन छः अक्षरोंके मंत्रको तीन सौ बार जप करनेवाला मनुष्य एक उपवासके फलको प्राप्त होता है । 'अरहंत' इन चार अक्षरोंके मंत्रको चार सौ बार जप करनेवाला मनुष्य एक उपवासके फलको प्राप्त होता है । 'सिद्ध' अथवा 'अहे' यह दो अक्षरोंका मंत्र द्वादशांगका सारभूत है, मोक्षको देनेवाला है और संसारसे उत्पन्न हुए समस्त क्लेशोंको नष्ट करनेमें समर्थ है । इसका ध्यान करना चाहिये ॥ जो मुनि 'अ' इस वर्णका पाँच सौ बार जप करता है वह एक उपवासके फलको प्राप्त करता है । जो मन वचन कायको शुद्ध करके पाँच सौ बार 'अर्हत्' के आदिअक्षर 'अ' मंत्रका जाप करता है वह एक उपवासके फलको प्राप्त करता है । पाँच तत्त्वोंसे युक्त तथा पाँच अक्षरमय 'ओं हां ही हूं ह्रौं ह्रः अ सि आ उ साय नमः' इस मंत्रको मुनीश्वरोंने द्वादशांग वाणीमेंसे सारभूत समझकर निकाला है । इसके निरन्तर अभ्याससे अति कठिन संसाररूपी बन्धन शीघ्र कट जाता है । जो मुनि 'चत्तारि मंगलं, अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो । चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहंतसरणं पव्वजामि, सिद्धसरणं पव्वजामि, साहूसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पव्वज्जामि ।' एकाग्र मनसे इन पदोंका स्मरण करता है वह महालक्ष्मीको प्राप्त करता है ॥ ॐ अर्हत् सिद्ध सयोग केवली वाहा' यह तेरह अक्षरोंका मंत्र मोक्ष महलपर चढ़नेके लिये सीढ़ियोंकी पंक्ति है ॥ 'ओं हां ह्रीं हूं हें हैं ह्रौं हः असि आ उ साय सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यो नमः' इस सत्ताईस अक्षरोंके ऋषिमण्डल मंत्रको जो भव्य आठ हज़ार बार जपता है वह इस लोक और परलोकमें समस्त वाञ्छित सुखको पाता है ॥ तथा
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