________________
- ४८२ ]
१२. धर्मानुप्रेक्षा
३७१
भव्यः नाभिमण्डले षोडशदलयुक्तकमले दलं दलं प्रति षोडशस्वरश्रेणि भ्रमन्तीं चिन्तयेत् । अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ऌ ए ऐ ओ औ अं अः । तथा हृदये चतुर्विंशतिपत्रसंयुक्तकमले पञ्चविंशतिककारादिमकारान्तान् व्यञ्जनान् स्मरेत् । क ख गघङ । च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म । ततः वदनकमलेऽष्टदलसहिते शेषयकारादिकारान्तान् वर्णान् प्रदक्षिणं चिन्तयेत् । "इमां प्रसिद्ध सिद्धान्तप्रसिद्धां वर्णमातृकाम् । ध्यायेद्यः स श्रुताम्भोधेः पारं गच्छेच तत्फलात् ॥” “ अथ मन्त्रपदाधीशं सर्वतत्त्वैकनायकम् । आदिमध्यान्तभेदेन खरव्यञ्जनसंभवम् ॥ ऊर्ध्वाधो रेफसंरुद्ध सकलं बिन्दुलाञ्छितम् । अनाहतयुतं तत्त्वं मन्त्रराजं प्रचक्षते ॥" हैं । “देवासुरनतं मिथ्यादुर्बोधध्वान्तभास्करम् । शुक्लमूर्धस्थचन्द्रांशुकलापव्याप्तदिग्मुखम् ॥” “ हेमाब्जकर्णिकासीनं निर्मलं दिक्षु खाङ्गणे । संचरन्तं च चन्द्राभं जिनेन्द्रतुल्यमूर्जितम् ॥" " ब्रह्मा कैश्विद्धरिः कैश्चिद्बुद्धः कैश्चिन्महेश्वरः । शिवः सार्वस्तथैशानो वर्णोऽयं कीर्तितो महान् ॥” "मन्त्रमूर्ति किलादाय देवदेवो जिनः स्वयम् । सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः साक्षादेष व्यवस्थितः ॥” “ज्ञानबीजं जगद्वन्यं जन्ममृत्युजरापहम् | अकारादिहकारान्तं रेफबिन्दुकला ङ्कितम् ॥” “भुक्तिमुक्तत्यादिदातारं स्रवन्तमभृताम्बुभिः । मन्त्रराजमिदं ध्यायेत् धीमान् विश्वसुखावहम् ॥” "नासाग्रे निश्चलं वापि भ्रूलतान्ते महोज्ज्वलम् । तालुरन्ध्रेण वा यातं विशन्तं वा मुखाम्बुजे ॥” “सकृदुच्चारितो येन मन्त्रोऽयं वा स्थिरीकृतः । हृदि तेनापवर्गाय पाथेयं स्वीकृतं परम् ॥” इमं महामन्त्र - राजं यो ध्यायति स कर्मक्षयं कृत्वा मोक्षसुखं प्राप्नोति । अहं । तथा हकारमात्रं सूक्ष्मचन्द्ररेखासदृशं शान्ति कारणं यो भव्यः चिन्तयति स स्वर्गेषु देवो महर्द्धिको भवेत् । यो भव्य ओंकारं पञ्चपरमेष्ठिप्रथमाक्षरोत्पन्नं देदीप्यमानं चन्द्रकलाबिन्दुना सितवर्ण धर्मार्थकाममोक्षदं हृदयकमलकर्णिकामध्यस्थं चिन्तामणिसमानं चिन्तयति स भव्यः सर्वसौख्यं लभते । भों, इमं मराज शत्रुस्तम्भने सुवर्णाभं, विद्वेषे कृष्णाभं, वशीकरणे रक्तवर्ण, पापनाशने शुभ्रं सर्वकार्यसिद्धिकरं चिन्तयेत् ॥ तथा,
सोलह पत्रवाले कमलके प्रत्येक दलपर अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ऌ ऌ ए ऐ ओ औ अं अः इन सोलह स्वरों का क्रमसे चिन्तन करो। फिर हृदयमें चौबीस पत्तोंसे युक्त कमलके ऊपर क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म, इन ककारसे लेकर मकार तक पच्चीस व्यंजनोंका चिन्तन करो । फिर आठ दल सहित मुखकमलपर बाकीके यकार से लेकर हकार पर्यन्त वर्णोंको दाहिनी ओर से चिन्तन करो । सिद्धान्तमें प्रसिद्ध इस वर्ण मातृकाका जो ध्यान करता है वह संसारसमुद्रसे पार हो जाता है | समस्त मंत्रपदोंका खामी सब तत्त्वोंका नायक, आदि मध्य और अन्तके भेदसे स्वर तथा व्यंजनोंसे उत्पन्न, ऊपर और नीचे रेफसे युक्त, बिन्दुसे चिह्नित हकार ( हूँ ) बीजाक्षर है । अनाहत सहित इस बीजाक्षरको मंत्रराज कहते हैं । देव और असुर इसे नमस्कार करते हैं, भयंकर अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिये वह सूर्य के समान है । अपने मस्तकपर स्थित चन्द्रमा ( ५ ) की किरणों से यह दिशाओं को व्याप्त करता है । सुवर्णकमलके मध्यमें कर्णिकापर विराजमान, निर्मल चन्द्रमाकी तरह प्रकाशमान, और आकाशमें गमन करते हुए तथा दिशाओंमें व्याप्त होते हुए जिनेन्द्र देवके तुल्य यह मंत्रराज है । कोई इसे ब्रह्मा कहता है, कोई इसे हरि कहता है, कोई इसे बुद्ध कहता है, कोई महेश्वर कहता है, कोई शिव, कोई सार्व और कोई ईशान कहता है । यह मंत्रराज ऐसा है मानो सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, शान्तमूर्ति देवाधिदेव जिनेन्द्र स्वयं ही इस मंत्ररूपसे विराजमान हैं | यह ज्ञानका बीज है, जगतसे वन्दनीय है, जन्म मृत्यु और जराको हरनेवाला है, मुक्तिका दाता है, संसारके सुखोंको लाता है, रेफ और बिन्दुसे युक्त अर्ह इस मंत्र का ध्यान करो नासिकाके अग्र भाग में स्थिर, भौहों के मध्यमें स्फुरायमाण, तालुके छिद्रसे जाते हुए और मुखरूपी कमलमें प्रवेश करते हुए इस मंत्रराजका ध्यान करना चाहिये । जिसने एक बार भी इस मंत्रराजको उच्चारण करके अपने हृदय में स्थिर कर लिया, उसने मोक्षके लिये उत्तम कलेवा ग्रहण कर लिया । आशय यह है कि जो इस महा
•
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org