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________________ १२. धर्मानुप्रेक्षा तोपपादसंमूर्छनजन्मनो जीवस्य भवाद्भवान्तरसंक्रमणे इषुगतिपाणिमुक्तालाङ्गलिकागोमूत्रिकाः चेति । तत्र इषुगतिरविग्रहा एकसामयिकी ऋज्वी संसारिणां सिद्धानां च जीवानां भवति । पाणिमुक्ता एकविग्रहा द्विसामयिकी संसारिणां भवति । लाङ्गलिका द्विविग्रहा त्रैसामयिकी भवति । गोमूत्रिका त्रिविग्रहा चतुःसामयिकी भवति । एवमनादिसंसारे भ्रमतो जीवस्य गुणविशेषानुपलब्धितस्तस्य भवसंक्रमणं निरर्थकमित्येवमादिभवसंक्रमणदोषानुचिन्तनं वा चतुर्गतिभवभ्रमणयोनिचिन्तनं भवविचयं सप्तमं धर्म्यम् । ७ । यथावस्थितमीमांसा संस्थानविचयं तत् द्वादशविधम् । अनित्यत्वम् १ अशरणत्वम् २ संसारः ३ एकत्वम् ४ अन्यत्वम् ५ अशुचित्वम् ६ आस्रवः ७ संवरः ८ निर्जरा ९ लोकः १० बोधिदुर्लभः ११ धर्मखाख्यातः १२ इत्यनुप्रेक्षाचिन्तनं संस्थानविचयम् अष्टमं धर्म्यध्यानम्। ८ । आज्ञाविचयम् अतीन्द्रियज्ञानविषयं ज्ञातुं चतुर्पु ज्ञानेषु बुद्धिशक्त्यभावात् परलोकबन्धमोक्षलोकालोकसदसद्विवेदनीयधर्माधर्मकालद्रव्यादिपदार्थेषु सर्वज्ञप्रामाण्यात् तत्प्रणीतागमकथितमवितथं न सम्यग्दर्शनस्वभावत्वात् निश्चयचिन्तनं सर्वज्ञागमं प्रमाणीकृत्य अत्यन्तपरोक्षार्थावधारणं वा आज्ञाविचयं नवमं धर्पध्यानम् ९ । हेतुविचयम् आगमविप्रतिपत्तौ नैगमादिनयविशेषगुणप्रधानभावोपनयदुर्धर्षस्याद्वादशक्तिप्रतिक्रियावलम्विनः तर्कानुसारिरुचेः पुरुषस्य खसमयगुणपरसमयदोषविशेषपरिच्छेदेन यत्र गुणप्रकर्षः तत्राभिनिवेशः १ श्रेयानिति स्याद्वादतीर्थकरप्रवचने पूर्वापराविरोधहेतुपरिग्रहणसामर्थ्येन समवस्थानगुणानुचिन्तनं हेतुविचयं दशमं धर्म्य'ध्यानम् १० । सर्वमेतत धर्मध्यानं पीतपद्मशुक्लेश्यावलाधानम् अविरतादिसरागगुणस्थानभूमिकं द्रव्यभावात्मकसप्तप्रकृतिक्षयकारणम् । आ अप्रमत्तात अन्तर्मुहूर्तकालपरिवर्तनं परोक्षज्ञानत्वात् क्षायोपशमिकभावं वर्गापवर्गगतिफलसंवर्तनीयं शेषैकविंशतिभावलक्षणमोहनीयोपशमक्षयनिमित्तम् । तत्पुनः धर्मध्यानमाभ्यन्तरं बाह्यं च। सहजशुद्धपरमचैतन्यशालिनि निर्भरानन्दमालिनि भगवति निजात्मन्युपादेयवुद्धिं कृत्वा पश्चादनन्तज्ञानोऽहमनन्तसुखोऽहमित्यादिभावनारूपमाभ्यन्तर सचित्त, अचित्त, सचित्ताचित्त, शीत, उष्ण, शीतोष्ण, संवृत, विवृत, संवृतविवृत ये नौ योनियाँ हैं । इन योनियोंमें गर्भ, उपपाद और सम्मूर्छन जन्मके द्वारा जीव जन्म लेता है । जब यह जीव एक भवसे दूसरे भवमें जाता है तो इसकी गति चार प्रकारकी होती है-इषुगति, पाणिमुक्ता गति, लांगलिका गति और गोमूत्रिका गति । इषुगति बाणकी तरह सीधी होती है, इसमें एक समय लगता है । यह संसारी जीवोंके भी होती है और सिद्ध जीवोंके भी होती है। शेष तीनों गतियाँ संसारी जीवोंके ही होती हैं । पाणिमुक्ता गति एक मोडेवाली होती है, इसमें दो समय लगते हैं। लांगलिका गति दो मोडेवाली होती है, इसमें तीन समय लगते हैं । गोमूत्रिका गति तीन मोडेवाली होती है, इसमें चार समय लगते हैं। इस प्रकार अनादिकालसे संसारमें भटकते हुए जीवके गुणोंमें कुछभी विशेषता नहीं आती, इसलिये उसका यह भटकना निरर्थक ही है, इत्यादि रूपसे भवभ्रमणके दोषोंका विचार करना भवविचय नामका सातवाँ धर्मध्यान है । अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओंका विचार करना संस्थानविचय धर्मध्यान है । सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट आगमको प्रमाण मानकर अत्यन्त परोक्ष पदाथोंमें आस्था रखना आज्ञाविचय धर्मध्यान है । आगमके विषयमें विवाद होनेपर नैगम आदि नयोंकी गौणता और प्रधानताके प्रयोगमें कुशल तथा स्याद्वादकी शक्तिसे युक्त तर्कशील मनुष्य अपने आगमके गुणोंको और अन्य आगमोंके दोषोंको जानकर 'जहाँ गुणोंका आधिक्य हो उसीमें मनको लगाना श्रेष्ठ है इस अभिप्रायको दृष्टिमें रखकर जो तीर्थङ्करके द्वारा उपदिष्ट प्रवचनमें युक्तियोंके द्वारा पूर्वापर अविरोध देखकर उसकी पुष्टिके लिये युक्तियोंका चिन्तन करता है, वह हेतुविचय धर्मध्यान है। इस प्रकार धर्मध्यानके दस भेद हैं। धर्मध्यानके दो भेद भी हैं-एक आभ्यन्तर और एक बाह्य । सहज शुद्ध चैतन्यसे सुशोभित और कार्तिके० ४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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