________________
-४६० ]
१२. धर्मानुप्रेक्षा
३४९
वक्तृत्वादिगुणविराजितो लोकाभिसंमतो विद्वान् मुनिर्मनोज्ञः, तादृशोऽसंयत सम्यग्दृष्टिर्वा मनोज्ञः १० । एतेषां दशविधानां यतीनाम् उपचरति उपकुर्वते उपकारं व्याधौ सति प्रासुकौषधभक्तपानादिपध्यवसतिकासंस्तरणादिभिः उपकारं करोति, धर्मोपकरणैः पुस्तकैः सिद्धान्तदानैः उपकारं करोति, तथा परीषहविनाशनैः उपकारं विदधाति, मिथ्यात्वादिसंभवे सम्यक्त्वे प्रतिष्ठापनम् बाह्यद्रव्यासंभवे कायेन श्लेष्माद्यन्तर्मलाद्यपनयनं तदनुकूलतानुष्ठानं करोति । कथम् । पूजादिषु निरपेक्षां पूजाख्यातिलाभमहत्त्वादिषु अपेक्षा वाञ्छारहितं यथा भवति तथा । कीदृग्विधानां यतीनाम् । उपसर्गजरादिक्षीणकायानां देवमनुष्य तिर्यग्जला भिवातपाषाणादिसंभवोपसर्गप्राप्तानां जरया प्रस्तानां वृद्धानां क्षीणशरीराणां रोगैः कृत्वा क्षीणशरीराणां यतीनाम् उपकारं वैयावृत्त्यं करोति । तस्य वैयावृत्त्याख्यं तपो भवतीति । तथा चोक्तं । 'करचरणपुट्ठिसिस्साण मद्दणभंगसेवकिरिया हिं । उव्वत्तणपरियत्तणपसारणाकुंचणाईहिं ॥ पंडिजग्गणेहिं तणुजोय भत्तपाणेहिं मेसजेहिं तहा । उच्चारादीण विकिंचणेहिं तणुधोवणेहिं च ॥ संथारसोहणेहि य वेयावश्च सया पयत्तेण । कार्यव्वं सत्ती निव्विदिगिच्छेण भावेण ॥ देहतवणिय मसंजमसीलसमाही य अभयदाणं च । गदिमदिबलं च दिण्णं वेयावच्च करतेण ॥' इति । किंबहुना, वैयावृत्त्यकारी जीवः यशः कीर्तिजिनाज्ञारूपसंपदा स्वर्गमोक्षसुखं प्राप्नोति ॥ ४५९ ॥
जो वावरइ सरुवे सम-दम-भावम्मि सुद्ध' - उवजुत्तो ।
- वहार विरो' वेयावच्चं परं तस्स ॥ ४६० ॥
पालन कराते हैं उन्हें आचार्य कहते हैं । जिनके समीप जाकर मोक्षके लिये शास्त्राध्ययन किया जाता है उन्हें उपाध्याय अर्थात् विद्यागुरु कहते हैं । जो बड़े बड़े उपवास करता हो, कायक्लेश आदि तपोंको करता हो उसे तपखी कहते हैं । जो शास्त्रोंका अभ्यास करता हो वह शैक्ष्य है । जिसका शरीर रोग से पीड़ित हो वह ग्लान है । वृद्ध मुनियोंके समूहको गण कहते हैं । दीक्षाचार्यकी शिष्य - परम्पराको कुल कहते हैं । ऋषि यति मुनि और अनगारके भेदसे चार प्रकारके श्रमणोंके समूहको संघ कहते हैं । अथवा मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका के समूहको संघ कहते हैं । जिसको दीक्षा लिये चिरकाल होगया हो उसे साधु कहते हैं । जो विद्वान मुनि वक्तृत्व आदि गुणोंसे सुशोभित हो और लोकमें जिसका सन्मान हो उसे मनोज्ञ कहते हैं । उक्त गुणोंसे युक्त असंयंत सम्यग्दृष्टि भी मनोज्ञ कहा जाता है । इन दस प्रकारके मुनियोंको व्याधि होने पर प्रासुक औषधि, पथ्य, वसतिका और संथरा वगैरहके द्वारा उनकी व्याधिको दूर करना, धर्मके उपकरण पुस्तक आदि देना, परीषहका दूर करना, उनके मिथ्यात्वकी ओर अभिमुख होनेपर उन्हें सम्यक्त्वमें स्थिर करना, उनके श्लेष्माआदि मलोंको फेंकना, तथा उनके अनुकूल चलना, ये सब वैयावृत्य है । यह वैयावृत्य ख्याति लाभ आदिकी भावनासे नहीं करना चाहिये । कहा भी है- हाथ, पैर, पीठ और सिर का दबाना, तेल मलना, अंग सेकना, उठाना, बैठाना, अंग फैलाना, सिकोड़ना, करवट दिलाना, आदि कार्योंके द्वारा, शरीरके योग्य अन्न पान तथा औषधियोंके द्वारा, मल मूत्र आदि दूर करने के - द्वारा, शरीरका धोना, संथरा आदि बिछाना आदि कार्योंके द्वारा ग्लानिरहित भावसे शक्तिके अनुसार वैयावृत्य करना चाहिये । वैयावृत्य करनेवाला देह, तप, नियम, संयम, शक्तिका समाधान, अभयदान, तथा गति, मति और बल देता है ॥ ४५९ ॥ अर्थ - विशुद्ध उपयोग से युक्त हुआ जो मुनि शम दम भाव रूप अपने आत्मखरूपमें प्रवृत्ति करता है और लोकव्यवहारसे विरक्त रहता है, उसके उत्कृष्ट वैयावृत्य तप होता है । भावार्थ - रागद्वेष से रहित साम्य- भावको राम कहते हैं,
१ ल म सग सुद्धि । २ म विवहार । ३ ब विरओ । ४ म विज्जावचं ( १ ), स वेज्जावचं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org